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रामनामाकंन साधना

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श्री राम नवमी

इस अत्यंत परम पावन दिवस पर जितनी भी शुभकामनाएं प्रेषित करें,कम ही लगेती है।

यह दिवस इतना पावन हैं, इतना पावन हैं कि,
उसका बखान या लेखन कर पाना असंभव है।

दिवसों में परम पावन दिवस कहा‌ गया है।

इसको अंको की दुनिया का सबसे बडा अंक कहा गया है।

9 का अंक सबसे बडा है।
इसको काटो गुणा करो, जोडो या भाग करो कैसे भी प्रयोग कर लिजीये अंतिम परिणाम 9 ही रहेगा।

आज के दिवस परम प्रभु परमेश्वर को निराकार से साकार होकर मानव मात्र का कल्याण करने का अवसर उपलब्ध हुआ।

आज के दिवस ही हम कलिकाल के मानवों के उद्धार हेतु, अत्यंत पावन ग्रंथ ,श्री राम चरित मानस का अंकनारंभ हुआ एवं अवतरण हुआ।

आज के दिवस ही , इस निसार‌संसार‌ से भी सारगर्भित सार निकाल कर,ग्रंथासार,जिवनासार,शब्दासार, ध्यानासार, ध्वनिसार ,नामासार , मंगलमूल, मगंलाकार, परमपावन ,अद्वितीय अनुपम, अतिसहज, साकारनिराकार को मानवघट में प्रकट करने वाले, मानवजीवन को सार्थकता प्रदान करने वाले, आदि अनादि नाम राम नाम को नामविग्रहस्वरूप प्रदान कर के स्वकल्याण,विश्व कल्याण, निमित्त श्री राम नाम धन संग्रह बैंक का अवतरण हुआ‌

श्री राम नाम धन संग्रह बैंक पुष्कर अजमेर के अवतरण दिवस पर समस्त विश्व वासियों को अनंत अनंत शुभकामनाएं

श्री राम नाम धन संग्रह बैंक के माध्यम से लौकिक एवं अलौकिक अनुभव प्राप्त कर्ता संतो,साधको, सिद्धों, एवं नवागतो का हार्दिक अभिनंदन

रामनामाकंन कर्ताओं सहित उन सब स्थानों,मकानो,भवनों, का सादर वंदन करते हुए ,उन समस्त स्थानों को सादर साष्टांग दण्डवत प्रणाम करता हूं,जहां जहां अंकित रामनाममहाराज की पधरावणी हुई, परिक्रमा हुई, दर्शन हुए,एवं जहां जहां रामनाममहाराज विराजमान हुए, उन समस्त स्थानों को अवध से भी उत्तम काशी से भी पावन और प्रयाग से भी विशिष्ट संगम जानते हुए, मानते हुए, नतमस्तक हो,समर्पण करता हूं।

उन समस्त साधको को सादर वंदन करता हूं, जिन जिन ने जिस भी भाव से‌,भगवान शिव,एवं कलिकाल के चक्रवर्ती सम्राट श्रीहनुमानजी महाराज के विराट स्वरूप को श्री रामनामाकंन के माध्यम से संग्रहित श्री राम नाम धन संग्रह बैंक के स्वरूप में लखा, परखा,समर्पण किया,और कर रहे हैं, और करते हुए अपना उत्कृष्ट समय श्री राम नाम धन संग्रह बैंक को समर्पित किया एवं कर रहे है ।

उन सबको सादर दण्डवत प्रणाम करते हुए उनकी चरण रज को आज के इस पावन दिवस पर मानसिक रूप से शिरोधार्य करते हुए अपने सौभाग्य में वॆद्धि कर स्वधन्य हो रहा हूं जिन जिन ने श्री राम नाम धन संग्रह बैंक अजमेर’ पुष्कर ,अजमेर को तन से मन से धन से एवं अमुल्य समय प्रदान करते हुए स्वधन्यता प्राप्त की अथवा कर रहे हैं।

पुनः उन समस्त साधकों संतों महंतो एवं मानवों को दण्डवत प्रणाम करता हूं, जिन्होने जाने अनजाने,भावावेष में अथवा भक्ति की परमावस्था को लक्षित करते हुए या‌ समझते हुए , श्री राम नाम धन संग्रह बैंक के अलौकिक स्वरुप को लौकिक स्वरूप में अवतरित होने में सहयोगी रहें हैं, और जिनके माध्यम से लाखों श्रद्धालुओं नें प्रभुश्री के इस विलक्षण स्वरूप का दर्शनीय किया,स्पर्स किया,दण्डवत किया,(आगे भी करेगें) सादर साभार राम राम कह कर प्रणाम समर्पित करता हूं।

आप सभी को पुनः श्री राम नवमी के पावन अवसर पर श्री राम नाम धन संग्ह बैंक (अजमेर) पुष्कर की और से हार्दिक बधाईयां देता हूं।

आपका सेवक चरणदास बी के पुरोहित
श्री राम नाम धन संग्रह बैंक अजमेर पंचपीपली ,सुधाबाय रोड पुष्कर

रामनामाकंन साधना 39

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रामनामाकंन साधना 39

आप हम सब रामनामाकंन कर रहे हैं,जो कि सतत हमारे' मनस्त्त्व'  को वर्तमान स्थिति से उस परमतत्त्व . की उच्चावस्था में स्थित करने का कार्य अति सहजरूप से कर रहा हैं ।

पर हमारी सुक्ष्मातिसुक्ष्म ज्ञान प्रवृति को जब तक हमारी बुद्धि पकड नहीं पाती तब तक हमारी अनुभूति में वह अवस्था गुजरती नहीं हैं,और हम उन लोगों को जवाब नहीं दे पाते जो कि कह देते हैं कि, रामनामाकंन से क्या होता हैं,अथवा आपको क्या अनुभव में आया हैं ?

आइये हम रामनामाकंन की प्रक्रिया और उसकी अति सुक्ष्म कार्य शैली को समझने का प्रयास करें।

हमारे ‘मनस्तत्त्व’ तथा ‘इन्द्रियतत्त्व’ को अथवा ‘प्राणतत्त्व’ को प्रथम स्थान देते हुए हमारा मानवीयमन ‘वाक् तत्त्व ‘ को उनके अधीन प्रक्रिया होने के नाते अन्तिम स्थान देता हैं‌।

  • वाक् का वाक्*

मंत्रशक्ति में हमारी वाकशक्ति की ही प्रधानता रहती हैं।
पर जब हमारे ह्रदय से उद्गम हुए वाक को हम मन बुद्धि चित अहं के आकाश पर अंकित कर लेते हैं तो वही वाक् सत्ता सोगुणित प्रभावात्मकता प्रदान करने लगती हैं,अतः हम हमारी मंत्रशक्ति को सदा अंकित करते हुए जाप करते हैं। जिसे हम रामनामाकंन कहते हैं।
रामनामाकंन के नाम से जानते हैं।
अर्थात अपने हाथ से राम नाम का अंकन करते हुए उस परम को अनुभूत करने की प्रक्रिया को ही हम रामनामाकंन कहते हैं।

यह प्रक्रिया वैदिक तो है ही, इसके साथ ही इसको प्रसारित करने के लिए, श्रीगणेश एवं श्रीहनुमानजी व भक्त प्रह्लाद द्वारा प्रयोग कर हमें दिखाया गया,जिससे कि भावी भक्तगणों को इस कलिकाल में इस अति सहज पद्धति पर विश्वास हो सके।

  महर्षि बालेन्द्र ने एवं पुज्य गुरुदेव ने मुझे समझाया कि, वैदिक सिद्धान्त में 'शब्द शक्ति'  ही सृष्टि- कर्त्री हैं। 

‘राम’ ‘शब्द’ से ही विश्व के रूपों की सृष्टि करता‌ हैं।
हमारी अन्य भाषाएं अपनी उच्चतम दशा में अन्तः स्फुरणा तथा रहस्यप्रकाशन द्वारा ‘परम सत्य’ की उस निरपेक्ष अभिव्यंजना की उपलब्धि का प्रयास मात्र करती हैं,जो कि हमारे मनोगत प्रमाणादि से ऊपर अनन्ततत्त्व में पहले से ही विद्यमान हैं।

   अतः यह सुस्पस्ट हो जाता है कि, "राम" शब्द हमारी मनोमयी रचनाओं से स्वतः ही परमोच्त्तर हैं।

हमारी यह समस्त सृष्टि शब्द तत्त्व अर्थात परम उच्चतर शब्द “राम” की ही अभिव्यक्ति हैं।

जो भी रूप अभिव्यक्त होता है या हो रहा हैं, वह वस्तु का प्रतीक अथवा प्रतिचित्रण मात्र होता है जो कि, तत्त्वतः हैं।
जो तत्त्वतः है वही शब्द सतत्त्व “राम” है,ब्रह्म हैं।

     वैदिक भाषा में 'राम' को ही" ब्रह्म " कह कर उच्चारित किया गया हैं।

वैद कहता है कि,
‘राम’ इस परम शब्द के द्वारा उन एन्द्रिक तथा चेतनागत विषयों में जिनसे विश्व की रचना हुई है, अपने ही किसी रूप अथवा व्यजंना को अभिव्यक्त करता है, ठीक जिस प्रकार मानव शब्द उन्ही विषयों की मानसिक प्रतिमा को व्यक्त करता हैं।
वह परम शब्द मानवीय वाणी से अधिक गहन और मौलिक अर्थ में सर्जनात्मक हैं,और उसमें जो सामर्थ्य हैं,मानव वाणी को अत्यधिक सर्जनात्मकता भी उसकी केवल सुदूर तथा क्षीण उपमा मात्र हैं।
अर्थात. ‘राम’ वह हैं जिसका इस प्रकार वाणी के द्वारा मन के सम्मुख अभ्युदय नहीं किया जा सकता हैं, अतः “राम” शब्द का बारं बार अंकन किया जाये,जिससे वह मन के सम्मुख आ सके।
अतः हम रामनामाकंन कर रहे हैं, और पुनः उस अंकित रामनाम को संग्रहित करते हुए उसकी प्रदक्षिणा करते हुए अपने ही अंतरजगत को उस परम उच्चाचस्था तक पहुचाने को प्रयासरत हैं।

आगे कल
प्रस्तुत कर्ता
बी के पुरोहित. माध्यम मात्र हैं।
(स्फुरणा प्रदाता रामनामाकंन के आदि प्रवर्तक महर्षि बालेन्द्र)
वास्ते श्री राम नाम धन संग्रह बैंक ।

रामनामाकंन साधना 43

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रामनामाकंन साधना 43
हमने यह जाना हैं कि, शब्द ध्वनि के पिच्छे
उसके प्रभाव से उत्पन स्पन्दन से होने वाली सृष्टि से साधक का संबध कैसा हैं ?

 हमने जाना हैं,कि लौकिक शब्द,ब्रह्मशब्द और शब्द व धव्नि का प्रभाव और उससे उत्पन्न होने वाली नूतन सृष्टि का हमारे पर प्रभाव कैसा और कैसे होता हैं।

राम नाम महाराज को वेदों में क्या कह कर संबोधित किया गया हैं।

जब हम वेदों का अथवा उपनिषद का अध्यन करते हैं, तो हमको कहीं ॐ कहीं राम कहीं ब्रह्मशब्द का वर्णन मिलता हैं।
इन शब्दों का अर्थ एक ही हैं।
इनमें कोई रतिभर भी अंतर नहीं हैं।
हां इनके उच्चारण इनके अंकन और इनके मूक वाक् के प्रभाव में बहुत ही अतंर हैं।

मूल में वेदो और उपनिषदों सहित गीता भागवत एवं रामायण में इन शब्दों का वर्णन किया गया हैं, इन शब्दों के प्रभाव को बताया गया हैं।

पर सबका सारांश बताते हुए यह भी बताया गया हैं कि, इनकी थ्योरी को पढने से अथवा जान लेने से व्यक्ति के मानस में ,अंतश में अथवा पराज्ञान में कोई प्रभाव नहीं होता।

हमको जन्मों जन्मों से अंतश की जो अवस्था हैं, अंतशः पर जो प्रभाव छा रखा हैं, जो हमारे डीएन ए पर जो प्रभाव हुआ हैं,या जो डीएन ए का  निज स्वभाव सा बन गया हैं, जो कुटस्थ प्रकृति का स्वभाव बन गया हैं, उसको मात्र थ्योरी जान लेने से  उससे मुक्ति नहीं हो सकती हैं।

 अतः उस स्वभाव में परावर्तन हेतु,उससे मुक्त होने हेतु हमको ब्रह्मशब्द का ही सहारा लेना होगा।

ब्रह्मशब्द अर्थात “राम” शब्द का सहारा लेना ही होगा।
राम शब्द का अंकन ,अथवा मूक जाप अथवा मुखर जाप से होने वाला निज स्वरूप पर इतना भारी होता हैं कि, निजस्वरूप पर छागये मेल अर्थात मायावी प्रभाव को हटाने, हटा कर निज स्वरूप को चिन्हने में एक मात्र सहज साधन हैं।

 हमारे प्रतिपल के कर्म से उत्पन्न प्रभाव ही हैं जो कर्माधीन मल को मिटाने या बढाने का कार्य प्रतिपल करता हैं।

इन सबसे हटकर एक प्रभाव बिलकुल भिन्न रूप से हमारी आत्मा पर छाये मल को हटाने अथवा आत्मा पर एक प्रकार का अदृष्ट आवरण डालने का कार्य करता हैं, वो हैं, ॐ अथवा राम शब्द का जाप ,ध्यान अथवा सतत उसीमें रमण करने से स्थायीत्वता लेता हैं।
जिससे आत्मा के निज स्वरूप पर किसी भी कर्म का कोई प्रभाव नही होता।
जैसा की भगवान शिव जो कि आदियोगी हैं,ने अपने सात शिष्यों को कठोरतर साधनाएँ सिखाई ,बतायी,जनाई,को कि हर कोई नहीं साध सकता, पर वहीं उन्होंने अपनी अर्द्धाग्निं को मात्र शब्द साधना बतलाते हुए कहा कि,


राम रामेति रमेति रमें रामे मनोरमे।
सहस्त्र ततुल्यं राम नाम वराणने।।

रामनामाकंन साधना 42

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रामनामाकंन साधना 42
राम यह शब्द मात्र शब्द नहीं हैं बल्कि “ब्रह्म-शब्द” हैं।
हम इसको “शब्द-ब्रह्म” ही मानते हैं।

भले ही एक पक्ष में इसको उपाधि मात्र कह कर व्यक्त किया गया हैं,पर बह भी उसका एक मात्र लौकिक पक्ष ही कहा जायेगा।

नाम रूप दुई ईस उपाधि

कारण कि, इस शब्द-ब्रह्म की अपनी बीज ध्वनियां हैं,जो कि ॐ में भी समाहित हैं।
ॐ. हों या राम ,एक ही ध्वनि को उत्पन्न करते हैं, ॐ अ उ म. ऎसे ही राम. र आ म , दोनो शब्द ब्रह्म शब्द हैं, अथवा शब्द ब्रह्म हैं।

     इनका एक पक्ष स्थुल जगत में पुर्ण प्रभाव व्यक्त करते हैं, यह तांत्रिकों के बीजाक्षर की और भी स्पष्ट संकेत करते हैं। 

  मूल में इन का‌आविर्भाव मनुष्य की सर्वोच्च क्षमता के प्रति होता हैं, और इन्ही रूपों से विश्व  के रूप निर्धारित होते हैं।

इसके अपने छन्द हैं।
कारण कि, राम शब्द का जो स्पन्दन हैं वो अव्यवस्थित नहीं होता हैं,बल्कि ब्रह्माण्ड के महामहिम निर्माण में व्यवस्था,सामजस्य तथा प्रक्रियाएँ होती हैं,जिसका वह निर्माण करता हैं।
हमारा जीवन स्वयं राम का ही एक छन्द हैं।

*अब प्रश्न उठता हैं कि, तब वह क्या हैं,जिसका अभ्युदय ,जिसकी अभिव्यक्ति इस शब्द-ब्रह्म अर्थात ‘राम’ के द्वारा इस प्रपञ्चात्मक दृश्यजगत् में मानसिक चेतना के प्रति की जाती हैं।
यह भी एक अलग ही पहलु हैं, ।
तब वह ब्रह्म नहीं बल्कि ‘ब्रह्म’ के सत्य,उसके रूप,उसकी प्रत्यक्ष घटनाएँ हैं।

  तब इस अवस्था में उच्चारित होने वाले नाॅद को ही संकेत करते हुए गोस्वामजी लिखते है कि,

नाम रूप दुई ईस उपाधि

कारण कि,उस अवस्थाधारी अथवा उस धरातल पर खडे़ व्यक्ति की शक्ति में उस उच्चारित ब्रह्म-शब्द अर्थात राम राम का भी प्रभाव वो मात्र अपनी मानसिक चेतना अनुसार ही अनुभूत करते हुए व्यक्त करता हैं,और कहता हैं कि,
नाम रूप दुई ईस उपाधि
वह ब्रह्म नहीं बल्कि ब्रह्म के सत्य,उसके रूप, उसकी प्रत्यक्ष घटनाएँ हैं,और वह उसी धरातल तक देख पाता हैं।
उसको इस महाशब्द से ब्रह्म राम की अभिव्यक्ति नहीं होती, और ना हीं हो सकती हैं।

कारण स्पष्ट है कि, अभी ऎसे लोगों कि आतंरिक शब्दयात्रा यहां तक ही हो पाती हैं, क्योकिं वह यहां इस ब्रह्मशब्द का‌ प्रयोग अपने निजी आत्मतत्त्व की अभिव्यक्ति के लिए नहीं करते, अतः वो केवल अपने आत्म चैतन्य के प्रति ही ज्ञेय हैं।

साधकों (रामनामाकंन कर्ता)को यह समझ लेना आवश्यक हैं।

वैश्व वस्तुओं के रूपों के पिछे उसके अपने सत्य भी अपनी सच्ची वास्विकता में मन से उच्चतर एक स्पन्दन में उसकी शाश्वत दृष्टि के प्रति स्वयं ही अभिव्यक्त रहते हैं,वह उनका ही एक छन्द और उनकी ही एक वाणी ,जो उनकी ही गति का निजी सारतत्त्व हैं।
वाक् जो कि एक अपर वस्तु है,सर्जन करती है,अभिव्यक्त करती है,किन्तु वह स्वयं एक सृष्ट वस्तु है,एक अभिव्यक्ति हैं।
इसका एक कारण समझ आना चाहिये कि,
राम” वाणी द्वारा अभिव्यक्त (प्रकाशित)नही होता हैं किंतु वाणी स्वयं ‘राम’ द्वारा अभिव्यक्त अर्थात प्रकाशित होती हैं।
जो हमारे भीतर वाणी को प्रकट करता है,हमारी चेतना में से उसका प्रादुर्भाव करता हैं,जो अपने प्रयासों द्वारा हमारे मन के प्रति वस्तुओं के सत्य को उद्भासित करता है, वह स्वयं शब्द रूप ब्रह्म हैं,राम हैं।

  वह सर्वोपरि परचैतन्य में एक 'वस्तुतत्त्व'हैं ।

वह शब्दब्रह्म हमारे वाक् का महावाक ' , अपने शक्तित्व में स्वयं नित्य तत्त्व हैं और अपनी सर्वोपरि गति में अपने ही स्वरूप का शाश्वत आधात्मिक विग्रह का एक अंश हैं। 

जब हम अपनी पुस्तिका में इस राम नाम विग्रह को उत्किरण करते हैं,तब उस ब्रह्मराम को ही प्रकट करते हैं। 

हमारा एक एक अंकित किया गया ,उत्किरण किया गया रामशब्द अपना ही आध्यात्मिक विग्रह हैं, उसका प्रकटीकरण हैं।
आत्मतत्त्व ,को इंगीत करता हुआ हमाराअपना स्वस्वरूप।
उपनिषद कहता है ,ब्रह्मणो रूपम।

   बी के पुरोहित

संस्थापक एवं व्यवस्थापक न्यासी
श्री राम नाम धन संग्रह बैंक पुष्कर अजमेर

रामनामाकंन साधना 40

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रामनामाकंन साधना 40*
गतांक से आगे:-
ध्वनि से शब्द और शब्द से स्पन्दन होता हैं,और स्पन्दन में सर्जनात्मक शक्ति।
हमारा सारा ब्रह्माण्ड शब्द से ही सर्जन हुआ हैं।

वह ध्वनि हैं ॐ और शब्द है राम

शब्द शक्ति महान हैं,जिसमें जहां सृजन छिपा हैं वही बिनाश शक्ति भी समाहित हैं।

शब्द से प्रेम और एक शब्द से नफरत भी उत्पन्न की जा सकती हैं, यह शब्द के उच्चारण और प्रषेणता पर निर्भर हैं ।
अतः यह समझ लेना है कि,सभी रूपों के पिछे एक ध्वनि का सृजनात्मक स्पन्दन हैं।

वाणी सृजनात्मिका होती हैं। वह भावावेश के रूपों का मनोगत प्रतिमाओं का तथा क्रियात्मक अन्तःप्रेरणाओं का सृजन करती हैं।

हमारे ऋषि महर्षियों ने वाणी की इस सृज्नात्मक क्रिया को मंत्र के प्रयोग तक विस्तृत किया।

मंत्र का सिद्धान्त यह है कि, मंत्र एक शक्तिमय शब्द हैं।

जिसका उद्गम उद्भव हमारी अपनी सत्ता की उन गुह्य गहराईयों से होता हैं जहां उस मानसिक चेतना से अधिक गहन चैतन्य के द्वारा ध्यान केन्द्रित किया गया हैं,जिसकी रचना ह्रदय प्रदेश में हुई और मूलतः विचार शक्ति के द्वारा जिसका निर्माण हुआ,जिसको मन के द्वारा धारण किया गया।
मनोमयी जाग्रत चेतना के द्वारा ध्यान एकाग्र किया जाता हैं।

  तब मूक अथवा मुखर रूप से उसका सुनिश्चित सृजनकार्य के लिए उच्चारण किया जाता हैं।

हां एक बात को गहराई से समझ लें कि, मूक शब्द , मुखर शब्द की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होता हैं।
हम रामनामाकंन करते हुए मंत्रजाप में इसी प्रक्रिया का प्रयोग करते हैं।

रामनामाकंन करते हुए हमारे अंतश में मूक जाप होता हैं।

इस प्रक्रिया में “राम”. मंत्र का अंकन सहित आंतरिक मूक जाप से, हमारे अपने अन्तर में नई स्वगत दशाएँ उत्पन्न की जाती हैं।
हमारी आतंरिक अंतर आत्मा की सत्ता को परिवर्तित किया जाता हैं।
राम नाम शब्द हैं,मंत्र हैं,महामंत्र हैं।

इस मुखर जाप से जहां बाह्य ब्रह्माण्ड में परावर्तन करने की शक्ति निहित हैं वहीं हमारी अंतर आत्मा को परावर्तित करने की महानशक्ति सत्ता उपलब्ध हैं।
और मूक शब्द शक्ति ,उपलब्ध शक्ति एवं अनुलब्ध ज्ञानशक्तियों का और ज्ञान का उद् घाटन किया जा सकता हैं।

राममंत्र के अंकित जाप के प्रयोग से अतिरिक्त अन्यान्य व्यक्तियों के मन पर भी अपनी सोच अनुसार परिणाम उत्पन्न किये जा सकते हैं।

इस अंकित जाप से मानसिक तथा प्राणमय वातावरण में ऎसे स्पन्दन उत्पन्न किये जा सकते हैं,जिनका परिणामों पर,क्रियाओं पर,भोतिक स्तर पर,भौतिकरूपों की उत्पति को भी प्रभावित किया जा सकता हैं।
रामनामाकंन से क्या हो सकता हैं, अथवा क्या होता है , ऎसे प्रश्न करने वालों कि बोद्धिकता को कोई क्या समझा सकता हैं ?
अगर उनकी समझ में उपरोक्त पद्धति आ जाए तो उनकी प्रश्नात्मकता सदा सदा के लिए परिवर्तीत होकर अंकन में सलंग्न हो जायेगी,प्रेमानन्द को उपलब्ध होगें, रामनामानुराग को उपलब्ध हो कर अमृतपान का सुअवसर प्राप्त करेगें।

आगे कल
प्रस्तुति कर्ता
बी के पुरोहित
वास्ते श्री राम नाम धन संग्रह बैंक पुष्कर

रामनामाकंन साधना 38

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रामनामाकंन साधना 38
गतांक से आगे;-

फिरत सनेह मगन सुख अपने
नाम प्रसाद सोच नहीं सपने

यह अलौकिक संत महात्मा,ऋषि,महर्षि, अथवा कोई भी साधारण मानव भी जब इस पद अथवा अवस्था को उपलब्ध हो जाता हैं, तो उस आत्मा और परमात्मा में कहां कोई अंतर रह जाता हैं।
फिरत सनेह मगन सुख अपने
ये अपने आप में ही सदा सदा के लिए मगन हो गये।
अब वहां कोई अन्य हैं ही नहीं !
इनके बाह्य जीवन का नितांत अभाव होगया हैं।

सतत सानुराग रामनामाकंन का प्रकट प्रभाव जिसको साधक अपने आप में ही अनुभव करता हैं।

मन तथा इन्द्रिंयों को अन्तर में निवृत हो जाना ,
उसकी अनुभूति में गुजर जाना, समयोपंरात अनुभुत होता हैं।
उसकी अनुभूति में, प्राण तत्त्व तथा इन्द्रिय-तत्त्व भी एक ही हैं।
इतना ही नहीं देह का जडत्त्व भी रामाकार हो कर उसको अनुभव से गुजरता हैं कि, सब कुछ राम ही राम हैं।
इन की गति में विशिष्ट अनुभूति में आया “राम” इनका सहज जीवन ही बन जाता हैं।
अब इनकी सत्ता , केवल ब्रह्मराम के लिए तथा ब्रह्म राम के अन्तर्गत ही होगी, तो व न केवल इस परम रहस्य को जानते हैं बल्कि वैश्व एकत्व में ही रहते हैं, जो कि उनका अपना ही हैं।
मगन सुख अपने
ये चाहें किसी भी अवस्था में हों किसी भी वस्तु की और अग्रसर हों, जो कि,इनके इन्द्रिय प्राण मन के बाह्य प्रतीत होती हों, पर इनको वस्तुओं का बाह्यरूप का नहीं ,बल्कि केवल ” राम” का ही बोध और चिंतन होता हैं।
उसी का संवेदन ,आलिगंन तथा रसास्वादन करते हैं।
अब इनके लिए बाह्य की कोई सत्ता है ही नहीं।
सियाराममय सब जग जानी
करत प्रणाम जोरि जुग जानी

क्योंकि,अब इनके लिए तो समग्र विश्व तथा विश्व के अन्तर्गत जो भी कुछ हैं, वह सब का सब आभ्यन्तर हो गया। सब का सब राममय

इसका मूल कारण यह हैं कि, रामनामाकंन का ऎसा प्रभाव और प्रताप हैं कि,रामनामानुराग के उत्पन्न होते ही, अहंम भाव की सीमा और वैयक्तिकता की दीवार भंग हो जाती हैं।
व्यक्तिभावपन्न मनस्तत्त्व अपने आपको व्यक्तिगत समझना बन्द कर देगा तब केवल वैश्व मनस्तत्त्व के प्रति सचेत होजाता है जो सर्वत्र एक ही हैं।

मगन सुख अपने,नाम प्रसाद सोच नही सपने

इनके कान मात्र एकही ध्वनि का श्रवण करते हैं “राम” । बाह्य तथा भीतरी देह केवल एक ही स्पर्श का अनुभव करती हैं, “राम” इस स्पर्श को मानो विराट देह के अन्तर्गत होने को ही अनुभव करते हैं।
“,राम” राम ” राम राम” राम राम”

यह लेख मात्र, रामनामाकंन कर्ता साधकों के निमित्त सेवा में समर्पित।
एक न एक दिन यह अवस्था हर रामनामाकंन कर्ता को रामनामानुराग जाग्रत होते ही अनुभूत हो कर रहगी।
अतः सादर रामनामाकंन करते रहे, सादर रामनामाकंन कर्ताओं की सेवा करते रहें।

एक बात विशेष रूप से निवेदन करता हूं, रामनामाकंन कर्ता साधकों की सेवार्थ लगे शाखा प्रबन्धकों से कि,
कभी भी भूल कर भी किसी भी साधक को ठेस नहीं पहुंचने दें।
भूल चुक में कोई भी साधक को ठेस पहुंची तो रामनाममहाराज कभी भी शरणागति प्रदान नहीं करेगें।
हां लौकिक सुख में फिर बेतहासा बृद्धि कर देगें,पर शरणागति प्रदान कदापि नही होगी।
इसी बात को लेकर तो गोस्वामी जी ने इतनासा कह दिया,कि
जिनके मुखारबिन्द से भूल चूक में भी राम नाम निकलता हों,मेरे तन की चमडी से उसके जूते बनवा दिया जाये।
इतना महत्व रामनाम लेने वाले का ?
अतः इस बात को विशेष रूप से अंगींकार करलें।
आपकी सेवा में।
बी के पुरोहित। 9414002930-8619299909
श्री रामनामालय भवन
पंचपीपली नेडलिया,पुष्कर राज ,_305022

रामनामाकंन साधना 37

150 150 rohit

रामनामाकंन साधना 37
फिरत सनेह मगन सुख अपने
नाम प्रसाद सोच नहीं सपने
साधकों !
आप मे से ही कल किसीने पुछा था,कि जो रामनामाकंन की पुर्णता को उपलब्ध हो जाते हैं,उनकी अवस्था कैसी होती होगी ?
तो गोस्वामीजी ने जो उपरोक्त चौपाई लिखी हैं, यह उन रामनामानुरागियों की ही हैं जो रामनामाकंन की पुर्णता को उपलब्ध हो गये हैं और जगत मेमन विचरण कर रहे हैं।
वो भी हमारे जैसों के कल्याण निमित।

ऎसे महात्मा,जो रामनामानुराग को उपलब्ध हैं,वो भी इसी धरा पर विचरण करते रहते हैं,परंतु उनका विचरण अत्यतं विलक्षण हैं,उनको पहचान पाने की शक्ति किसी भी साधक की नहीं हैं, बस हरि कृपा जिन पर होती हैं वहीं उनको चिन्हित कर सकता हैं।
गोस्वामीजी ने लिखा कि

बिनु हरि कृपा मिलहिं नहीं संता

यह रामकृपा जिस पर भी हो जाती हैं,वहीं इनके दर्शन कर पाता हैं,अन्यथा
भले ही वो हमारे समक्ष ही क्यों ना हों, हम उनको पहचान ही नहीं पाते/।

अकदसर तो हम उनके पार्थीव अस्तित्व को ही निहार पाते हैं, पर जब रामकृपा होती हैं तो हम उनके ब्रह्मत्व को अनुभव कर पाते हैं।
मूल में हमारी दृष्टि उनके उस अस्तित्व के दर्शन करने लायक हो जाएं उसके लिए रामनामाकंन की पराकाष्ठा को उपलब्ध होना होगा ?
हमारे जो देवतागण हमारी इन्द्रियों के अधिष्ठाता हैं, उनकी मूल वृतियों को शांत करने जीतना जप अति आवश्यक हैं।

वर्तमान में हमारी गति बाह्यजगत में हैं।
उनका अभ्यास बाह्यजगत से इतना तादात्म्यता पुर्ण हैं कि, इस गतिको तोडना भी बिना प्रभुकृपा के संभव नहीं हैं।
एक वो महान आत्मा जगत में विचरण करते हुए हमारे समक्ष हैं जो कि,अंतरमुखी होकर ब्रह्मसे एकाकार होकर रामनाममय होकर जगत में विचरण कर रहा हैं, और एक हम जो अपनी स्थुल दृष्टि मनोभाव लिए उनके समक्ष भी हों, तो भी हम उनको कहां पहचान पायेगें?
हमको ऎसे संतो के दर्शन करने लिए प्रभुकृपा पर ही आश्रित होकर स्वार्पण का भाव जाग्रत करना ही होगा ।

मूल में यह समर्पण कोई देह का नहीं हैं कि,गये और दण्डवत होगये और समझ लिया कि होगया समर्पण!
नहीं यह समर्पण होता हैं, हमारे मन बुद्धि चित्त और अहंतत्व का।
हमारा स्वार्पण तो हमारी मूल वृति में पुर्ण परावर्तनोपंरात ही हो सकेगा।
समझो!
रामनामाकंन इगना हों इतना हों, इगना सानुरागपुर्ण हों कि, हमारी प्रत्येक इन्द्री पर बैठे देवगणों का रूपातंरण हो जाये हैं।

साधक को, ब्रह्मज्ञान को अनुभुत करने के लिए प्रकृति में होते हुए उस परावर्तन को अनुभूत करना होगा।
साधक को,
विश्व की रूपाकृतियों के पिछे उस तत्व की और निवर्तन जो कि विश्व में सारतत्त्वस्वरूप हैं-और जो सारतत्व स्वरूप हैं वह द्विविध है,प्रकृति में देवगण और साधक में आत्मतत्त्व – और उसके पिछे उस परात्पर तत्त्व को और निवर्तन जिसका ये दोनो प्रतिनिधित्व करते हैं, को अनुभूत करना होगा।
उन वैश्व प्रवृतियों को जिनके द्वारा देवगण करते है,मन प्राण वाक् इन्द्रियाँ ,देह इत्यादि को उस परात्पर के प्रति साधक को सचेत होना होता हैं।
रामनामाकंन के प्रभाव से साधक अपनी साधारण वृतियों से मुड़कर उसकी और उन्मुख होता जाता हैं।
रामनाकंन साधक में, तत्त्व की वह शक्ति ज्योति तथा आनन्द के अधिनस्त होगी जो सबसे परे हैं।
(देखिये कैसे धीमे धीमे यह परावर्तन होता हैं ?)

ऎसी अवस्था में रामनामाकंन कर्ता साधक के अंतःकरण में जो घटित होता हैं,वह यह है कि,यह दिव्य अनभिधेय तत्त्व प्रकट रूप से स्वयं को इन देवगणों में प्रतिभासित करता हैं।
उसकी ज्योति चिंतनशील मन को अधिकृत कर लेती हैं।
उसकी शक्ति तथा आनन्द प्राण को अधिकृत कर लेते हैं, उसकी ज्योति और आत्मरति और आत्मरति भावुक मन तथा इन्द्रियों को अधिकृत कर लेती हैं।
ब्रह्म की विराट प्रतिच्छाया का कोई तत्त्व जागतिक प्रकृति पर पडता हैं, और उस दिव्य प्रकृति में परिवर्तित कर डालता हैं।
यह सब कोई आकस्मिक चमत्कार से घटित नहीं हो जाता हैं । सहसा स्फुरणाओं से ,अन्तरुमिलनों से , आकस्मिक संस्पर्शों तथा दर्शन से प्राप्त होता हैं।
अतः साधकों को सतत. सानुराग रामनामाकंन करते रहना चाहिये।
निर्विघ्न निर्विवाद एवं निर्बाधात्मकता के लिए, रामनाम महामंत्रों की प्रदक्षिणा करते रहना चाहिये।
अथवा रामनाम महातिर्थ धाम श्रीरामनामालय भवन के सानिध्य में जाकर रामनामाकंन करना चाहिये।
जो साधक रामनाम महामंत्र प्रदक्षिणा महायज्ञ से रामनामाकंन पुर्श्चरण आरंभ करते हैं,उनकी अवस्थाओं मे विलक्षणता अनुभव में आती देखी गयी हैं।
साधकों को 3-12-2024;; से 15-12-2024 तक होने जारही इस विलक्षण प्रदिक्षिणा महायज्ञ का अधिकाधिक लाभार्जन करना चाहिये।
निवेदक
बी के पुरोहित
वास्ते श्री राम नाम धन संग्रह बैंक पुष्कर
श्रीरामनामालय,भवन पंचपीपली ,सुधा बाय रोड़ पुष्कर।
9414002930-8619299909

रामनामाकंन साधना 36

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रामनामाकंन साधना 36
राम नामाकंन साधना से जो आध्यात्म अनुभूत होता हैं,उसको समय समय पर महर्षि जी ने हमे बताया और बताते रहते हैं।

राम नाम सत्य हैं।
राम नाम ही सत्य हैं।
इस बात को कितने लोग स्वीकार कर पाते हैं।

अगर राम नाम सत्य हैं, इस शब्द को भी स्वीकार करने में समस्या अनुभव में आती हों ?
तब आगे की यात्रा कैसे संभव होगी ?
अगर आप को लगता हैं कि, आपने इस सत्य को स्वीकार्यता प्रदान करदी हैं, तो ?

तो एक परिक्षण अवश्य करना, हालांकि यह एक बहुत ही छोटा सा उपाय हैं, पर साधक को प्राथमिक अनुभूति हेतु आवश्यक हैं।

साधक को चाहिये कि, अपने घर में जो भी छोटा बालक हैं, बच्चा बच्ची पोता पोति दोहित दोहित्र आदि,
उसको गोद में उठा कर बाहर से भीतर या भीतर से बाहर लाते हुए बोल कर देखिये !

राम नाम सत्य हैं
तब अपने भीतर उठने वाली तरंगों का अध्यन किजीये,कि यह शब्द स्वीकार्य हो गया हैं या नहीं।
यह आपका अनुभव आशिंक अनुभव करायेगा कि,राम नामाकंन करते हुए राम नाम से कितना प्रेम हुआ हैं?
अगर यह शब्द उच्चारण करते हुए आनंद की अनुभूति होती हैं तो आप उस प्राथमिक अवस्था को पार कर गये।
तब आपको अपनी दुसरी अवस्था को अनुभव करने के लिए मार्ग प्रशस्त होरहा हैं।
आइये आगे कि यात्रा करते हैं।

हमको बताया गया हैं कि राम ही प्राण हैं ।
यह प्राण कहां से आता हैं, कहां प्रयाण कर जाता हैं,इस बात को समझना हैं, अगर बुद्धि कार्य करती हैं तो बुद्धि से समझलो, नही तो समय पाकर जैसे जैसे रामनामाकंन होता जायेगा तब जपानुराग के अनुसार अनुभव में आता जायेगा।
राम हमारा आत्मा हैं‌।

आत्मा से प्राण वायु उत्पन्न होता हैं ।
(जैसे पुरुष से छाया उत्पन्न होती हैं वैसे ही)
मन की प्रक्रिया से यह शरीर में प्रवेश करता हैं।
फिर जैसे कोई अधिकारी अपने कर्मियों को भिन्न भिन्न स्थानों पर नियुक्त करता हैं,वैसे ही यह मुख्य प्राण वायु ,दुसरे प्राणों को आदेश करता,नियुक्त करता हैं कि, जाओ अलग अलग क्षैत्रों पर जाकर शासन करो।

पायू एवं उपस्थ में अपान (निम्न) वायु स्थित हैं, तथा मुख एवं नासिका में स्वयं प्राण (मुख्य वायु) स्थित करता हैं।
मध्य में समान वायु को, इसी का कार्य होता हैं हुतान्न को समान रूप से वितरण करना।
कारण ,इसीसे सप्त अग्नियों का जन्म होता हैं।

यह आत्माराम ह्र्दय में निवास करता हैं और ह्रदय में एकसोएक नाडियां होती हैं।
और प्रत्येक नाडी़ में सॊ सॊ शाखा नाडियां होती है। इन सब में जो संचरण करता हैं, वह व्यान वायु।
इन अनेको मे एक है जिससे उदान वायु (उपर की और ) प्रयाण करता हैं।
यही है जो पुण्यों के द्वारा,पुण्यलोक में,पापों के द्वारा नर्क में तथा पाप तथा पुण्यों के मिश्रित कर्मों से पुनः मनुष्य लोक में वापिस ले आता हैं।

समझो !
इस शरीर के बाहर सूर्य ही है मुख्य प्राण ,कारण यह उदित होते हुए चक्षुओं को सम्प्रेषित करता है।
पृथ्वी में जो देवत्व है वह मनुष्य के अपना वायु को आकृष्ट करता हैं, और अन्तरिक्ष है वह मध्यवर्ती वायु(समान) है; वायु व्यान हैं।
“तेज” आदि उर्जा ही है,उदान ; अतः जब मनुष्य में तेज तथा उष्मा क्षीण होने लगती है,तब उसकी इन्द्रियां मन में सिमट जाती है,तथा इस अवस्था में यह पुनर्जन्म के लिए प्रयाण कर जाता हैं।
मनुष्य जब देह त्याग करता हैं,उस समय उसका चित्त (मन) जैसा होता हैं,उसी चित्त से वह प्राण में आश्रय लेता है, तथा उदान (तेज) संयुक्त होकर आत्मा के साथ उसे उसके संकल्पित लोक में ले जाते हैं।
अगर मनात्मा में जो साधक रामनामाकंन कर चुके होंगें; बताओ वो कहां जायेगें?

जो विद्वान ‘प्राण’ के संबंध में इस प्रकार जानता है, और जानकर मनात्मा में ‘राम’ का अंकन कर लेता हैं, उसका वंश क्षीण (व्यर्थ) नहीं होता , वह अमर हो जाता है।
उसके लिए मैं नही कहता बल्कि श्रुति भी कहती हैं कि,

उत्पतिमायतिं स्थानं विभुत्वं चैव पञ्चधा।
अध्यात्मं चैव प्राण्स्य विज्ञायामृतमश्नुत इति।
अर्थात प्राण की उत्पति,उसका आगमन,उसकी स्थिति,पञ्चविध क्षैत्रों में उसका विभुत्व (प्रभुत्व) इसी प्रकार आत्माराम से उसका संबंध ,यह जानकर मनुष्य अमृत्व का पान करता हैं‌।
यही रामनामामृत पान हैं।
अतः साधक बडे प्रेमसे रामनामाकंन करते रहें।
अमृत पान स्वतः होने के लिए समर्पित रामनामाकंन ,होने लगे।
आप लोगों के लिए श्रीरामनामालय भवन का निर्माण करवाया जा रहा हैं,जहां साधक नो, नो दिन के अनुष्ठान मॊन रह कर करने का सुअवसर प्राप्त होगा।
संस्थापक
बी के पुरोहित
श्री राम नाम धन संग्रह बैंक पुष्कर राज
9414002930-8619299909

रामनामाकंन साधना*

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रामनामाकंन साधना*
आपसे निवेदन किया गया था,कि, साधन और साधना दोनों के व्यवहार में बहुत अंतर हैं।
साधन से साधना करते हुए साध्य को साधा जाता हैं, पर रामनामसाधना में साधन के माध्यम से स्वःको साध्य किया जाता हैं,और साध्यता हो जाने के उपरांत साध्य किये गये तत्त्व को ही स्वः को उपलब्ध होने पर परिणाम में साधन ,साधना,साध्य और साध्य हुए साध्य की उपलब्धता में एक्यता का वह परिणाम होता हैं कि, कुछ भी भिन्नता नहीं रह जाती हैं।
साध्य को जानकर एकाकार हुआ साधक स्वयं साध्य हो जाताहैं,अर्थात राम हो जाता हैं।
यह सिद्धांत हैं।
जानत तुमहहिं तुमहिं होहिं जाहीं

*राम”नाम जप ,अंकन और अंकन कालमें, स्वमनोवृतियों में होते परिवर्तन ,परिवर्तनोंपरांत मनस्तत्त्व का शांत हुआ शुन्यको उपलब्ध हुआ साधक ,साध्यसे एकाकार होकर जब किसीको दर्शन देता हैं,तो उसके दर्शन करने वाला भी कुछ क्षण तो रामनामानुराग को उपलब्ध हो जाता हैं।
चाहे वो प्राणी कैसा भी रहा हों?

 ऎसे साधक जो साधना से साध्य को उपलब्ध हो स्वयं राम होगये।
 ऎसे साध्यको उपलब्ध होगयी परम आत्माओं को ही विलक्षण संतों की उपाधियों से नवाजा गया और उनके लिए  गोस्वामी जी ने लिखा,कि ऎसे संतों के दर्शन दुर्लभ हैं।

ऎसे संत बिना‌ हरिकृपा के समक्ष प्रकट नहीं हो पाते।

बिनु‌ हरि कृपा मिलहिं नहीं संता

मिलहिं नहीं, का‌ तात्पर्य यह हैं कि, ऎसे संत मिलते नहीं हैं।
मिलते नहीं का तात्पर्य. यह नहीं कि होते ही नहीं हों ? होते है, वो भी कोई एक दो नहीं बल्कि अनन्त हैं, पर‌ हमारी बोद्दिक दिवालियेपन के कारण हमारे सामने उनका रामत्व प्रकट नहीं हो पाता।
अर्थात. हम अपने राग द्वेषादि के कारण हमारी बोद्धिकता पर पडे पर्दों के कारण हमारे समक्ष होते हुए भी हम उनको पहचान ही नहीं सकते।

हमारे सामने तो, स्वयं राम ही साकार हो कर हर क्षण समक्ष हैं, तो क्या हम जान पा रहे हैं ?
नहीं न !
बस इसी कारण , गोस्वामीजी कि,यह उक्ति यह कथन हमारी समझ से परे हैं,जिसमें गोस्वामी जी ने लिखा है कि,
सियाराम मय सब जग जानी
कर ऊँ प्रणाम जोरि जुग पानी
इस कथन में गोस्वामीजी को यह चराचर जगत का दृश्य सीयाराममय रूप में ही दर्शित हो रहे हैं।
तो एक बात पर. मनन करें कि,
जो जगत गोस्वामी जी को राममय दृष्टिगोचर हो रहा हैं,उसी जगत के दर्सन करते हुए भी हम क्यों नही रामदर्शन कर पा रहे हैं ?
बल्कि उसी जगत के दर्शन करते हुए भी हम कहते हैं कि,राम कहां हैं?

बसी बुद्धिके इसी जडत्त्व को समाप्त कर परम चैतन्यानुभूति हेतु एक ही साधन हैं,और वह हैं रामनामाकंनम्
श्रीरामनामालयम्

रामनामाकंन साधना 35

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रामनामाकंन साधना 35
आज रात भर मानस का एक ही शब्द गुँजता रहा,
पद पाताल सीस अज धामा
अपर लोक दायक विश्रामा
प्रातः प्रार्थना में इसकी व्याख्या करने का निवेदन किया,और महर्षि बालेन्द्र जी ने जो शब्द समझाये वो आप लोगो कि सेवा में प्रस्तुत हैं।
राम नाममहाराज का वैश्विकस्वरूप का वर्णन गोस्वामीजी ने इस चौपाई में किया हैं ।
एक शब्द और मानस में आया हैं “अश्वमेध”
यह अश्वमेध क्या हैं ?
यह अश्वमेध यज्ञ जिसका वेदों में उपनिषदों में नाना अर्थ किया गया हैं, परंतु जो भी रामनामाकंन कापुरश्चरण कर रहा हैं?
को भी ससंकल्प निजहस्त चॊरासी लाख बार रामनामाकंन कर रहा हैं, वह अश्वमेध यज्ञ ही कर रहा हैं।

वेदों में मानस में या अन्यत्र जहां जहां भी अश्व का प्रयोग हुआ हैमन वह पारब्रह्म परमेश्वर श्रीराम का व्यापक स्वरूप को प्रतिपादित करता हैं।
पद पाताल सीस अज धामा पाताल से लेकर अपर लोक तक का वर्णन किया हैं।*
अश्व का वर्णन ही उन्होने इस स्वरूप को प्रद्रशित करने को कहा हैं कि,
अश्व को एक प्रचण्ड प्रतीक भव्यता के साथ रामनाममहाराज के विश्वात्मा के रूप को प्रतपादित किया हैं।
ॐ उषा मेध्य का तात्पर्य अश्व का शिर हैं। अर्थात
सुर्य उसके चक्षु हैं,वायु उसका प्राण हैं।
उसका खुला हुआ मुख व्यतमुख वैश्वानर अग्नि हैं,वैश्व ऊर्जा हैं; काल’ मेध्य अश्व की आत्मा हैं,द्युलोक उसकी पीठ है,और अतंरिक्ष उसका उदर है,धरती उसके पैर टिकाने का स्थान हैं,दिशाएं उसका पार्श्व भाग हैं।
अवान्तर दिशाएं उसके पार्श्वभाग की अस्थियाँ अर्थात पसलियां हैं।
ऋतुएं अंग हैं, मास तथा अर्धमास उसकी पर्व संधिया हैं, ये जो नक्षत्र घुमते हैं यह अस्थियां हैं, यह जो नभ हैं, उसके शरीर का मास हैं।
समुद्री सिकता उसके उदर में स्थित अन्न है। नदियां उसकी शिराएं है पर्वत उसके यकृत और फेफडे हैं।
औओषधियां तथा वनस्पतियां उसकी शरीर के लोम हैं।‌
उदित होता हुआ दिवस उस अश्व का पुर्वार्ध है तथा अस्त होता हुआ दिवस उसका जघनार्थ यानि कि पिछे का भाग हैं।
जब रामनाम महाराज अंगडाई लेते हैं तो बिजलियां चमकती हैं; जब वह अपने को झकझोरता (कंपाता) है तब मेघो की ध्वनि होती हैं। जब वह मुत्र त्याग करते हैं तब बर्षा होती है।
वाक् (शब्द) रामनांहाराज की ही वाणी हैं।
ज्योहिं अश्व सरपट दोडा ,दिन-रूपी महिमा का जन्म हुआ ,पूर्वी समुद्र में उनका जन्म हुआ।
उसके पिछे रात्रि-रूपी महिमा का जन्म हुआ तथा उसका जन्म पश्चिमी जलों में हुआ।
रामनांहाराज के दोनों और ये ही महिमाएं प्रकट हुई।
हय” बन कर उन्होने देवों को वहन किया, वाजी बन कर गंधर्वो को वहन किया, अर्वा बन कर असुरों को वहन किया अश्व बनकर मनुष्यों वहन किया ।
समुद्र ही उसका बन्धु हैमन, तथा समुद्र ही उसकी योनि हैं। जन्म स्थान हैं।
यह रुपक रामनाममहाराज के निज स्वरूप को समझने के लिये अथवा समझाने के लिए लिखा गया हैं।
हर रामनामाकंन करने वाला जब इस दृष्टिसे देखेगा तो उसको हर पल हर स्थान पर रामनांहाराज के दर्शन लाभ होना आरंभ हो जायेगा।
इस स्वरूप के दर्शन करने पर हम अश्वमेधयज्ञ के आश्व के दर्शन करेगें तो हमारा सौभाग्य होगा।
हम पुरातन मानसिकता में आधुनिक सुक्ष्मताओं को पढ़ने अथवा आदिम- असभ्य अन्धविश्वासों को सभ्य रहस्यवाद से बदल देने के दोष के संकट में पड़ने से सदा बच जायेगें।
हम हत पल‌ अश्वमेध यज्ञ अथवा यज्ञ के अश्व के दर्शन करेगें तो आध्यात्मिक प्रगति में एक विलक्षण उछाल आ जायेगा।
रामनाममहाराज के वास्विक स्वरूप को अनुभूत करने का एक अतिविलक्षण योग जीवन में उतर आयेगा।
आप सबकी सेवार्थ प्रस्तुत।
महर्षि बालेन्द्र (रामनामाकंन के प्रथम दृष्टा महर्षि) का विलक्षण उपदेश , बडे योग से आपकी सेवा में समर्पित हैं।
प्रस्तुत कर्ता
बी के पुरोहित 9414002930-8619299909
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