रामनामाकंन साधना 34

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रामनामाकंन साधना 34
साधकों ! क्या आप को रामनामाकंन करते हुए कभी यह अनुभव में आया है कि, *जो कुछ भी है वह सब मैं ही हूं!

जिनको भी यह भास होगया वो उस अवस्था को बतला तो नहीं सकते पर उनकी अनुभूति को प्रणाम।
उनको प्रणाम परमात्मा को ही प्रणाम हैं।

मूल में यह अवस्थाभान एक न एक दिन हर रामनामाकंन को समर्पित साधक को होनी ही हैं।

किसीको पहले किसीको अभी तो किसी को फिर कभी पर ,अगर साधक समर्पित हैं तो निश्चित ही इस अवस्था को उपलब्ध होने में कहीं कोई बाधा नहीं हैं।

हमारी मनोमयी सत्ता के पिछे सदा से विद्यमान इस गहन से गहन विशालतर तथा अधिक सशक्त चैतन्य का निर्वचन कराने वाला साधन हैं रामनामाकंन , क्योंकि वह जो चैतन्य है वही ब्रह्म हैं, और रामनामाकंन से निर्वचन हुआ साधक ही उसको अनुभूत करता सकता हैं

मूल में हमारा निजस्वरूप ब्रह्मस्वरूप ही हैं।
उसको अनुभूत नही करने देने में,जो जडत्वधारी सत्ताएं हमें भटकाती रहती हैं, वह भटकाव बन्द होने का एक मात्र साधन हैं, रामनामाकंन।

देखो मनस्तत्त्व,प्राणस्त्त्व,इन्द्रियत्त्व ,अथवा वाकत्त्व जिसकी अनुभूति हमें पल पल होती रहती हैं, यह तो परब्रह्म स्वरूप नहीं हैं।

यह तो मात्र निम्नस्तरीय आकार प्रकार हैं,जो हमारी चैतन्यसत्ता से भटका कर‌ सांसारिक होने में सहायक हैं और यही सब तो हमारे अतिप्रिय होकर हमारे आकर्षण का केन्द्र बन बैठे हैं।

  इतना आकर्षण हैं कि, जीव को इसमें ही घुलमिल कर उसीको परमानन्द समझने की महान भूल करवा रहे हैं। 

 इससे  अधिक आनन्द जिसकी झलक मात्र अर्थात परछाई मात्र से इनमें आकृषण अनुभूत होता हैं, उस मूल तत्त्व तक जाने का विचार तक मनमें उत्पन्न नहीं होने देते।

क्योंकि,मन बुद्धि चित अहं को तो बस यही अभिव्यक्ति जो इन्ही के माध्यम से होती हैं अथवा होरही हैं, उसीको सर्वस्व मान लिया तो आगे की अनुभूति का विचार ही नहीं जाग्रत हो सकता और न उन विचारों से अपने को अलग करने का भाव ही प्रकट हो पाता।

इन बाहरी उपकरणों से पिण्ड छुडाने का भाव मात्र और मात्र सतत रामनामाकंन से ही घट में प्रकट हो सकता हैं ।
इस लिए ही रामनामाकंन को सर्वश्रेष्ठ साधना कहा गया हैं,और यही सत्य भी हैं।

क्योंकि ब्रह्म चैतन्य ही हमारी सच्ची सत्ता हैं वास्तविक स्वरूपा हैं, उसी सत्ताको रामनाममहाराज कहा गया हैं।

परंतु बस साधक इस भाव से रानामाकंन में संल्गन हों कि, उससे रामनामाकंन होने लगे।
उसका रामनामाकंन करने का भाव सर्वथा समाप्त हो जाये। तथास्तु!

जय जय जय राम नाम महाराज की जय।
बी के पुरोहित 9414002930-8619299909
वास्ते श्री रामनाम धन संग्रह बैंक नेडलिया,पुष्कर राज 305022

रामनामाकंन साधना 33

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रामनामाकंन साधना 33

रामनाम और अन्य साधन ?

साधकों को कभी कभी मायिक बुद्धि भ्रमित करने आती रहती हैं !

यह घटना ही नही बल्कि बडी ही विलक्षण दुर्घटना हैं, जो अन्य व्यक्तियों (जो लोग रामनामाकंन नही करते ) की तो बात ही छोडो़ ,बल्कि जो रामनामाकंन करने के लिए स्वयं को समर्पित कर देते हैं,उनके जीवन में भी घटती रहती हैं।

यह घटना कैसे घटती हैं, इस बात का खुलासा करते हैं।
जब कोई साधक किसी को भी योग तप तपस्या करते देखता हैं, तब उसके मन में यह क्षणिक घटना घट जाती हैं।
उसको मन में लगता हैं कि, अरे यह जन इतनी कठोर तपस्या कर रहा हैं, मैं तो केवल रामनाम करता हूं तो मैरा क्या होगा ?
यह तो इतनी तीर्थों की यात्रा कर आया, तिर्थॊं में जाकर कथा भागवत श्रवण करके आया हैं,मैं तो कहीं गया ही नहीं।
यह तो इतने व्रत उपवास करता हैं, में तो व्रत उपवास कर ही नही सकता,या मैने तो कभी एकादशी का व्रत किया ही नहीं।
यह जन तो निर्वस्त्र रह कर सर्दी गर्मी बारिश में रहते हुए कितना तप कर रहा हैं ?
यह तो अंत समय में मरणोंपरांत भोजन जल आदि का त्याग करते हुए अपने प्राण त्याग करने को संकल्पित हैं, तो इनकी साधना के समक्ष मेरी साधना क्या हैं ?
इस व्यक्ति ने तो चारों धाम की यात्रा अपने पैरो पर चलकर पूरी करने का संकल्प लिया हैं,ना जाने कितने समय में पूरी होगी, और इससे भी बढ़ कर कुछ जन तो दण्डवत प्रणाम करते हुए चारों धाम की यात्रा पर निकले हैं, तो कहां उनकी इतनी कठोर साधना और कहां मैं ?
मैं तो मात्र रामनाम का अंकन कर रहा हूं, और वो भी पंखे में बैठकर A C में बैठ कर तो मॆरा साधक होना क्या मायने रखता हैं?
यह जो विचार मनमें जब कभी भी किसी भी रामनामाकंन कर्ता के मन में कोंधता हैं, यही बडी विलक्षण घटना हैं, जो उसको साधक होने में बाधक हो जाती हैं।
इस घटना से साधक की मायिक बुद्दि में जो प्रभाव पड जाता हैं,यह बहुत हानिकारक हो जाता हैं।
यह मायिक बुद्धि तो क्या सात्विक बुद्धि राजसी बुद्धि को छोडों अतंकरण तक को विचलित कर देती हैं।

राम नामाकंन कर्ता साधक के मन में ऎसे विचार उठ भी जाएं तो उनको तुरंत मानस से बाहर करें।

कोई कितनी भी साधना करता हों कैसे भी करता हों, पर उनकी समस्त साधनाएं रामनामाकंन के समक्ष कुछ भी नहीं हैं।

यह बात मन मस्तिष्क बुद्धि ही नही अतंरमन में भी अच्छे से बिठालो।*
अगर कुछ होता तो माता पार्वती को भी शिवजी वहीं विद्या सिखाते जो सप्तृषियों को सिखाई।

सप्त ऋषियों को अति कठोर साधना और माता पार्वती को मात्र रामनामाकंन ,इसका क्या तात्पर्य हुआ ?
इसमें रहस्य इतना ही था कि,माता में समर्पण भाव और सप्त ऋषियों में स्वयं में कर्ताभाव जाग्रत था।

ऎसे रामनामाकंन साधकों को, यह बात मन में बिठा लेनी हैं,कि, मात्र समर्पण भाव जाग्रत रहे जो रामनामाकंन करूंगा,ऎसा भाव सर्वप्रथम जाग्रत हुआ था ,जब प्रथम पुस्तिका ली थी,तब जाग्रत हुआ,उसी भाव को आगे बढाते रहना हैं।
क्योंकि रामनामाकंन से ही अनुराग जाग्रत होगा और:–:;
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा
किएं जोग जप तप व्रत ….?

दुसरी बात जो कि अति सहज हैं,उसको भी सदा याद रखें।
नही कलि कर्म न धर्म बिबेकू
राम नाम अवलंबन एकू
साधकों रामनाम को छोड कर जो कभी भी अन्य उपायों पर ध्यान जाता हों तो इस बात को याद कर लेना कि,

राम नामको छाडिं कर करै अन्य से आस
बरषत बारिद बूंद गहि चाहत चढ़न आकास

ऎसे व्यक्ति जो राम नाम को छोड कर अन्य साधनों से आशा करता हों, ? तो उसका प्रयास बस मात्र इतना ही हैं कि, मानो वो बरसती बारिस की बूंदों को पकड कर आकाश में चढ़ना चाह रहा हों?
जो कभी भी किसी के लिए संभव नहीं हैं ?

एक कठोर बात कहता हूं जो कि मेरी नहीं हैं,गोस्वामी जी ने कही हैं, गोस्वामीजी जो कि हर साधना के परणाम से परिचित हैं, हर शास्त्र के ज्ञाता हैं,उनसे कुछ भी छुपा नहीं हैं, उनका कथन हैं कि,

यदि कोई भी साधक रामनाम को छोड़ कर किसी अन्य साधन को अपनाने की मन में विचार करता हों, तो उसका यह विचार ऎसा होगा कि,मानो अपनी थाली में परोसे हुए पकवानों को छोड़ कर घर घर जाकर रोटी का टुकडा मांगता फिर रहा हों ?
तात्पर्य कि ऎसा मुर्ख कॊन होगा ?
बस वही जो रामनामको छोड कर अन्यत्र विश्वास करने लगे।

अतः रामनामाकंन साधकों से निवेदन हैं कि, जैसे भी हों रामनाम में लगे रहो।
रामनाम की सेवा में लगे रहो।
आपको लगे कि कहीं कोई अवमानना होगयी हैं,अथवा अपमान होगया हैं तब भी रामनामाकंन नही छोडना है।
रामनांहाराज की शरणागति ही सर्वोतम हैं।

रामनामाकंन कर्ता के मन में भी कभी भी यह विचार नही आना चाहिये कि ,रामनामाकंन से परे हो जायें।
क्योंकि इस अति दुर्ळभ मानव तन में आने के बाद इससे बडी दुर्घटना कुछ भी नही हैं।

एक धून एक आस एक विसवास से लगे रहो कि, रामनाममहाराज ही बेडा पार लगायेगे।

एक भरोसो एक बल एक आस विसवास
रामनामाकंन चांद है तो चातक तुलसीदा

राम ही भजिये गाइये रामही

राम ही लेना रामही देना
रामही भोजन राम चबेना

सेवा में समर्पित आपका अपनाआप
बी के पुरोहित 9414002930-8619299909
राम नाम धन संग्रह बैंक पुष्कर अजमेर

रामनामाकंन साधना

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रामनामाकंन साधना
आपसे निवेदन किया गया था,कि, साधन और साधना दोनों के व्यवहार में बहुत अंतर हैं।
साधन से साधना करते हुए साध्य को साधा जाता हैं, पर रामनामसाधना में साधन के माध्यम से स्वःको साध्य किया जाता हैं,और साध्यता हो जाने के उपरांत साध्य किये गये तत्त्व को ही स्वः को उपलब्ध होने पर परिणाम में साधन ,साधना,साध्य और साध्य हुए साध्य की उपलब्धता में एक्यता का वह परिणाम होता हैं कि, कुछ भी भिन्नता नहीं रह जाती हैं।
साध्य को जानकर एकाकार हुआ साधक स्वयं साध्य हो जाताहैं,अर्थात राम हो जाता हैं।
यह सिद्धांत हैं।
जानत तुमहहिं तुमहिं होहिं जाहीं

*राम”नाम जप ,अंकन और अंकन कालमें, स्वमनोवृतियों में होते परिवर्तन ,परिवर्तनोंपरांत मनस्तत्त्व का शांत हुआ शुन्यको उपलब्ध हुआ साधक ,साध्यसे एकाकार होकर जब किसीको दर्शन देता हैं,तो उसके दर्शन करने वाला भी कुछ क्षण तो रामनामानुराग को उपलब्ध हो जाता हैं।
चाहे वो प्राणी कैसा भी रहा हों?

 ऎसे साधक जो साधना से साध्य को उपलब्ध हो स्वयं राम होगये।
 ऎसे साध्यको उपलब्ध होगयी परम आत्माओं को ही विलक्षण संतों की उपाधियों से नवाजा गया और उनके लिए  गोस्वामी जी ने लिखा,कि ऎसे संतों के दर्शन दुर्लभ हैं।

ऎसे संत बिना‌ हरिकृपा के समक्ष प्रकट नहीं हो पाते।

बिनु‌ हरि कृपा मिलहिं नहीं संता

मिलहिं नहीं, का‌ तात्पर्य यह हैं कि, ऎसे संत मिलते नहीं हैं।
मिलते नहीं का तात्पर्य. यह नहीं कि होते ही नहीं हों ? होते है, वो भी कोई एक दो नहीं बल्कि अनन्त हैं, पर‌ हमारी बोद्दिक दिवालियेपन के कारण हमारे सामने उनका रामत्व प्रकट नहीं हो पाता।
अर्थात. हम अपने राग द्वेषादि के कारण हमारी बोद्धिकता पर पडे पर्दों के कारण हमारे समक्ष होते हुए भी हम उनको पहचान ही नहीं सकते।

हमारे सामने तो, स्वयं राम ही साकार हो कर हर क्षण समक्ष हैं, तो क्या हम जान पा रहे हैं ?
नहीं न !
बस इसी कारण , गोस्वामीजी कि,यह उक्ति यह कथन हमारी समझ से परे हैं,जिसमें गोस्वामी जी ने लिखा है कि,
सियाराम मय सब जग जानी
कर ऊँ प्रणाम जोरि जुग पानी
इस कथन में गोस्वामीजी को यह चराचर जगत का दृश्य सीयाराममय रूप में ही दर्शित हो रहे हैं।
तो एक बात पर. मनन करें कि,
जो जगत गोस्वामी जी को राममय दृष्टिगोचर हो रहा हैं,उसी जगत के दर्सन करते हुए भी हम क्यों नही रामदर्शन कर पा रहे हैं ?
बल्कि उसी जगत के दर्शन करते हुए भी हम कहते हैं कि,राम कहां हैं?

बसी बुद्धिके इसी जडत्त्व को समाप्त कर परम चैतन्यानुभूति हेतु एक ही साधन हैं,और वह हैं रामनामाकंनम्
श्रीरामनामालयम्

रामनामाकंन साधना ३०

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*रामनामाकंन साधना ३०

राम यह नाम हैं,परमात्मा का,परमतत्त्व का,
यह वह तत्त्व हैं, इस महानाम में अग्नि,सुर्य,चन्द्रमा सब का समाहन है,अथवा इनकी उत्पति इसी नाम से हैं।

यह नाम पदार्थों का सत्यतत्त्व’ ः जिस प्रकार सुदीप्त अग्नि सेवसहस्त्रों स्फुलिंग उत्पन्न होए है तथा वे सब के सब अग्नि के समान रूप वालें होते हैं।
जैसे अक्षर-तत्व से अनेकानेक भावों अर्थात समभुतियों का उद्भव होता है, और पुनः सब के सब उसी में चले जाते हैं।
इस रामनाम को वेद सोम्य कहता हैं।
मात्र सोम्य ही नहीं दिव्य,अमूर्त भी बताया गया हैं।
इस रामनाम को ही वेद ने पुरुष भी कहा हैं।
जिस पुरूष को बाह्य और आन्तर (सत्य) कहा है तो ” अज” भी कहा हैं।
रामनामको वेद प्राणों से परे अर्थात अप्राण कहा हैं, तो मन से परे अमन भी कहा हैं।
और तो और शुभ्र ज्योतिर्मय एवमन अक्षर से भी परे परमात्म-तत्व कहा हैं, या यों कहें कि, जिसको परमात्म-तत्त्व बताया गया वही तो रामनाम हैं।

राम” इस नाम को मात्र जो लोग नाम ही मानते हों ? उनको यह अच्छे से जान लेना चाहिये की वेद कह क्या रहे हैं, राम नाम के सन्दर्भ में।

वेद ने स्पष्ट किया हैं कि,
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सेर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथवी विश्वस्य धारिणि।।

वेद ने बताया वही जो मानस में गोस्वामीजी ने बताया कि,
बंद ऊं नाम राम रघुबर को
हेतु कृसानु भानू हिमकर को

यही सब का हेतु है ,यही रामनाम सबजा जनक हैं।
इसी परमात्म-तत्त्व से प्राण ,मन, तथा समस्त इन्द्रियों का जन्म होता हैं।
तथा आकाश,वायु,अग्नि,जल,तथा सभी को धारण करने वाली धरा अर्थात पृथ्वी का भी जन्म होता हैं।

रामनानाकंन कर्ता साधको जरा सोचो कि, आप लोग जिसको अंकित कर कर के जप कर रहे हो? क्या वह उतनासा नाम मात्र हैं क्या ?
जो आप जानते मानते आरहे हो?

अरे नही भाइयों!
आप जिस रामनाम का अंकन कर रहे हो,उस परमसत्तात्मक तत्त्व को जो अनंत अनंत हैं, उसको सिमित करके अपने चक्षु के दायरे में लेकर अपनी पुस्तिका में उसकी सारी सत्ता को एक चौखाने नें समाहित कर रहे हो।
यह कोई बहुत छोटी मोटी घटना नही घट रही हैं, बल्कि जब आपको अनुभव होगा तो आप यह जान जायेगें कि, आपने राम लिख कर उस परम सत्ता को अपनी पुस्तिका पर उसका अवतरण कर दिया हैं।
यह हैं आपके द्वारा किये गये रामनामाकंन का अर्थ,तात्पर्य,आशय , परम आशय।
बिना किसी बहकावे के रामनामाकंन करते रहें,आप की बुद्धि लोकिकता से उपर उठ कर परमतत्त्व को स्वानुभव बनायेगी।
रामनामानुराग आपकी समस्त लोक परलोक इहलोक सबसे परे परानुभूति को उपलब्ध होगी।
जयति जय रामनामाकंनम्
श्रीरामनामालयम्
श्री राम नाम धन संग्रह बैंक पुष्कर राज अजमेर के निमित्त।

रामनामाकंन साधना 29

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रामनामाकंन साधना 29
​साधकों को यह अनुभव में स्वतः आ ही जायेगा,जब वो धीरे धीरे अपने पुनश्चरणकी पुर्णता की और बढ़ेगा।
जैसा कि हमने कल पढा़ सुना, महर्षिजी ने गहन रहस्य को नामाकंन साधकों के निमित्त उजागर कर दिया।

​महर्षिजी ने कल बताया कि, कैसे साधक रामनामाकंन करते हुए बिना किसी योग अथवा योगिक क्रियाओं के स्व-साधनान्तर्गत एकोsबहुश्याम के रहस्य से साक्षात्कार करते हुए अभिन्नता में अवस्तीथ होता है और सर्वत्र अपनत्वता की अनुभूती को उपलब्ध होता हैं।

रामनामाकंन करते करते साधक को यह अनुभूति में गुजरता है कि

 बोद्धिकता  में यह बोध  स्वतः होने लगता हैं कि, परमत्त्व जो परम ज्ञानमय हैं, वह अमन हैं।

    वह मन द्वारा मनन नहीं करता हैं, उसको यह स्पष्ट भास होता जाता हैं कि, मनस्तत्व तो उसकी एक न्यून तथा गौण प्रकिया हैं,उसकी स्वभाविक अवस्था नही हैं, स्वाभविक वृति नहीं हैं।

  अब साधक उस अवस्था से उपर उठ गया हैं जो कि,  जन्मों से नानारूपों में जगतविचरण करते हुए ना जाने कब उसकी मनस्तत्वता को अस्वभाविक रुप से स्वभाविक अनूभूत कराता आरहा था।
  वो अब उस मानसिकताको त्याग कर सहज स्वभावको उपलब्ध होरहा हैं।

       यह उसकी अंतिम अनुभूति होती हैं,क्योकिं उसके बाद की जो अवस्था है,जिसको वह उपलब्ध हो ब्रह्माकार होने जारहा हैं ।

ब्रह्माकार होते ही अमना हो सर्वमना होजाता हैं।

ब्रह्माकार हो जाने के उपरांत साधक शरीरी हों या अशरीरी हों?
वह निर्भय निश्विंत अमना, अमायिक अवस्था को उपलब्ध हैं।
अब उसकी अवस्था परात्पर राम से एकाकार होकर रामावस्था को उपलब्ध हैं अतः उनके लिए भी यही कहा जायेगा,जो रामके लिए कहा गया हैं

बिनु पग चलहिं सुनहिं बिनु काना
कर बिनु कर्म करहिं विधि नाना

यह कैसी अवस्था हैं ?

यही रामनामाकंन कर्ता साधकों की अतिंम अवस्था हैं, जो सशरीर होते हुए भी अशरीरी हैं। और जो स”मना” होकर भी निर्मना हैं।

गोस्वामीजी ऎसे संतों को देखते हुए कहते हैं कि, रामनामलोकमें विचरण करते हुए यह ससरीरी परमात्मस्वरूप अवस्थाको उपलब्ध होते हुए भी जगत में बिचरणरत रहते हैं, वो मात्र अपने भगतों के हित के लिए।
सॊ केवल भगतन हित लागी

यह ब्रह्माकार शरीरी होकर निश्चिंत विचरण करते हैं,पर हैं बडे़ अशरीरी।

फिरत सनेह मगन सुख अपने
*नाम प्रशाद सोच नहीं सपने”

ये लोग रामनामाकंन करते हुए ही ब्रह्माकार हुए और ब्रह्माकार होकर जगत में विचरण करते हैं,क्यों ?
क्यों उनको क्या आवश्कता हैं विचरण करने की?
तो महर्षिजी ने गोस्वामीजी की उक्त अर्द्धालि को उदघाटित कर दिया कि,
सो केवल भगतन हितकारी
निश्चित ही इनको निश्चिंत विचरण करते हुए देख पाना भी उन्हीं के लिए संभव हैं, जिन पर परात्पर पारब्रह्म परमात्मा राम की विशेष कृपा‌ होती हैं।
सप्षट निर्देश भी है कि,
संत विशुद्ध मिलहिं पुनि तेहीं
राम सुकृपा बिलोकहिं जेहीं
हे रामनाकंन साधकों!
आप के लिए श्री राम नाम धन संग्रह बैंक यही प्रार्थना करता हैं,कि, आप पर रामनाम महाराज की कृपा अतिशिघ्र हों, और आप इसी लोक में इन अवस्थाओं को उपलब्ध हो जाएं।

जय जय राम राम रामनाम अंकनम्
आपका सेवक
बीकेपुरोहित 9414002930-8619299909

शाखा प्रबंधक इस लेख के निचे अपना नाम नबंर डाल कर आगे प्रेषित कर सकतें हैं।
आप पर भी महर्षिजी की कृपा हैं, और आपमें और बीके में कोई अंतर नहीं हैं। जय जय रामराम ।

रामनामाकंन साधना 26

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रामनामाकंन साधना 26
स्व साधना का एक अंग रामनामाकंनियों की ह्रदय से सेवा भी हैं

स्व-साधना में रामनामाकंन जैसी कोई अन्य. साधना नहीं हैं, स्वसाधना का तात्पर्य अपने ही भीतर विद्यमान परमात्मा को अनुभूत कर के उससे एकाकार होजाना ।

इसका ही एक अंग हैं जो भी रामनामाकंन कर रहे हैं उनकी सेवा तन से मन से धन से की जाना।

गोस्वामीजी ने तो अपने तन की चमडी का एक एक कतारा ऎसे महानुभवों के निमित कर दिया जो सहज भाव से ही रामनाम महाराज को समर्पित हैं अथवा रामनामसाधकों की सेवा में रत हैं।

अक्षर लोग व्यख्या करने में कतराते हैं,कारण कि उनको पढाया गया हैं,दस नामापराध !

वो दस नामापराध किसी को भी किसी से बडा छोटा बताने को स्वसाधना में महान व्यवधान बताते हैं, और हो सकता है कि,वो सच भी हों ?
परंतु सेवक की अनुभुति में आया नहीं,कारण कि,

    जिन भी महानुभाव ने दस नामापराध बताये या गिनाये हैं, उन्होने उसमें रामनामाकंन को सामिल नहीं किया हैं इस बात का भी विशेष ध्यान रखना होगा !

नारदजी ने यह वरदान मांगा कि, हे प्रभु में आपके माध्यम से यह आश्वाशन चाहता हूं कि, रामनाम आपके समस्त नामों में सर्व श्रे्ष्ठ हों!

दुसरा रामनाम का प्रभाव जीवन के लौकिक- अलौकिक सभी क्षेत्रों में अतिविशिष्ठ रूप से हों?

उससे भी विशिष्ठ रूप से मांगा गया यह बरदान !
जहां रामनामाकंन हों, रामनामाकंन साधकों की किसी भी प्रकार से सेवा हों, उन पर रामनाममहाराज की कृपादृष्टि सदा बरषती रहे?
और जहां जिसपर भी रामनाम महाराज की कृपा बरष जाएं-
उस का प्रताप बखान करना तो स्वयं मां सरस्वति के लिए भी असंभव हों !

गोस्वामी जी , रामनाममहाराज के साकार स्वरूप में श्रीराम को मानते हैं,परंतु उस अवतार के समक्ष भी रामनाम एवं रामनामाकंन के‌महत्व को बखान करने से चुकते नहीं।
साथ ही कहते भी हैं, कि

को बड छोट कहत अपराधू   

कहते हैं कि नामापराधोंमें यह भी गिनाया गया हैं कि,
भगवान शिव विष्णु आदि के नामों को ऊंचा निचा बताना या कल्पना भी करना ,भगवान के अनन्त नाम हैं, उनके किसीबनी नामरूप को छोटा बडा बताना ,यह पाप ही नहीं हैं, बल्कि यह तो बहुत ही
बडा पाप हैं।

परंतू मैं तो कहुंगा ही, भले ही यह अपराध ही हों कि,

राम से बडा राम का नाम
रामु न सकहिं नाम गुन गाई
नहिं कलि करम न धरम विवेकू

यह बात इतनी सहजता से कहदी कि,
हर तरह की साधना को रामनाममहाराज की शरणागति के समक्ष नगण्य कर दिया।

    तीनो तरह‌ के योगों को भी नगण्य कर दिया।

नहिं कलि ,
करम न धरम न विवेक ।

 यहां कर्मयोग , विवेकु कहकर ज्ञानयोग और न धरमू कह कर यज्ञादि साधनों को भी कलिकाल में महत्वहीन अथवा छोटा बता दिया,  रामनामाकंन के समक्ष।

अब आप लोग जो किसीभी प्रकार की रामनामाकंन साधना में लगे हैं, वो स्व-साधना में रत हैं वो समझलें कि,उनकी साधना का ब्रह्माण्ड में कोई सानी नहीं हैं।

चाहे कोई किसीको पुस्तिका उपलब्ध कराते हॊं?
चाहे कोई सेन्टर चलाते हों ?
चाहे कोई रामनामाकंन पुस्तिकाएं उपलब्ध कराते हों ?
चाहे कोई रामनाममहाराज की प्रदक्षिणा का आयोजन कराते हों?

या आयोजन में कोई भी पार्ट निभाते हों?

या प्रदक्षिणा करने वालों की कोई भी किसी भी प्रकार की सेवा‌ हों ? करते हों?
यह सब प्रकार हैं रामनामाकंन की सेवा साधना‌ का ही अंग हैं।
जयपुर वासियों के लिए यह सुअवसर ,आराध्य राधागोबिन्ददेवजी की अनुकम्पा से पुज्य महंत गोस्वामी श्री अंजन कुमारजी एवं श्रीमानस गोस्वामीजी की कृपा से, दिनांक 3 दिसबंर से 15 दिसंबर तक होने जा रहे आयोजन के माध्यम से उपलब्ध होने जा रहा हैं।

जय जय जय जयति जय जय।
राम राम राम
वास्ते श्री राम नाम धन संग्रह बैंक पुष्कर राज।

रामनामाकंन साधना 25

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रामनामाकंन साधना 25
लोक लाहु पर लोक निबाहु
रामनाम के अंकन का प्रभाव लोक और परलोक दोनो स्थानों पर एक साथ ही होता हैं।

दरस परस मज्जन अरू पाना
दर्शर्न करनेसे, स्पर्स करने से अंकनस्नान करने से प्रक्षिणा करने से भिन्न भिन् अनुभूति होती हैं।

अकिंत रामनाम विग्रह के दर्शन एवं प्रदक्षिणा से जो अनुभव होता है उसके संन्दर्भ में चर्चा करते हैं।

रामनामसंग्रह के दूर से दर्शन करने का फल इतना हैं कि, समस्त देवताओं के दर्शन करनेसे जो पुण्य लाभ होता हैं,वह लाभ दूर से ही रामनामसंग्रह के दर्शन का लाभ होता‌हैं।

रामनाम महाराज को एक बार दण्डवत प्रणाम करने का पुण्य लाभ उतना‌ हैं, जितना कोई दशाश्वमेध यज्ञ कराकर प्राप्त कर सकता हैं।

रामनामसंग्रह की प्रदक्षिणा का पुण्यलाभ , उतना हैं जितना कि, कोई व्यक्ति समस्त ब्रह्माण्ड की प्रदक्षिणा करने के उपरांत प्राप्त कर सकता हैं।

       प्रभु के किसी भी विग्रह के दर्शन मात्र से हमारी मानसिकता को जो उच्चतर अवस्थाओं की भिन्न भिन्न अनुभूति होती हैं,वह है अति विलक्षण,और उसका वर्णन करना तो असंभव ही हैं।

हां प्राथमिक दृष्टि से तो अनुभव सबका कभी भी एक सा नहीं हो सकता।

क्योंकि सबके लौकिक जीवन में विगत अनुभव की भिन्नता होना।

,रामनाम के पति साधक का प्रेम,
प्राथमिक धरातल पर मानव का अनुभव उसी पर आधारित रहता है,जो उसके व्यक्तिगत जीवन में व्यतीत हुआ होता हैं।

   किसीका जीवन सात्विक तो किसीका राजसिक अथवा किसीका तामसिक विचारधारा वाले परिवार में  जीवन व्यतीत हुआ होता हैं। 

 जिसका तामसिक जीवन व्यतीत हुआ होता हैं उसको सात्विकता के दर्शन की अनुभूति कभी भी नही होसकती।   (बिना रामनामाकंन के)

      कारण सप्ष्ट है नि,, तामसिक जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तिमें ,  देवदर्शन में भी तामसिक विचारों की प्रधानता रहती हैं। 

        रामनामाकंन साधन की साधना में और अन्य साधनाओं में एक बडासा अतंर यह हैं कि,

रामनाम महाराज का स्पर्स कुछ ऎसा हैं जैसा कि अग्नि का।
रामनाम दाहक जिमि आगि

     अग्नि की दाहकता का अनुभव जैसे सभी का एकसा ही  होता हैं,वैसे ही, साधक ब्रह्माण्ड के किसी भी भाग में रामनामाकंन करें,आतंरिक अनुभव सबका एकसा होता हैं।


     दर्शन ,स्पर्स, तीर्थाटन की अनुभूति कितनी ही भिन्न भिन्न होती हों? पर रामनामाकंन की अनुभुति में अभिन्नता रहेगी। 

कारण स्पष्ट हैं कि, हमारा प्रत्येक नामाकंन उस परब्रह्म परमात्मा राम से सहज ही अभिन्नतानुभूति कराता हैं।
, जिसका अनुभव
राम बोलने व सुनने का,जो प्रभाव लौकिक रूप से होता हैं,वह अनुभव में आने‌लायक नहीं भी हों , पर रामनामाकंन में न कुछ कहना हैं,न सुनना हैं,न सुनाना हैं,बस मात्र अकंन होता हैं, यह अकंन होता तो कागज पर कलम से,जो साधक को दिखता हैं,जिस पर सहसा कोई विश्वास ना भी करें, पर इसकी छाप ब्रह्माण्ड पर होती हैं, और. ऎसी होती हैं कि, जनम जनम मुनि जतन करा कर भी वह लाभ नहीं ले पाते,जो एक बार अकंन से प्राप्त हो जाता हैं।

      पर आप सोचो कि, यह रामनामाकंन होने से पूर्व क्या क्या गतिविधि शरीर के भीतर होती हैं,और क्या क्या गतिविधि आपके आसपास के बातावरण पर और क्या क्या गतिविधि ब्रह्माण्ड सहित सम्पूर्ण अतंरिक्ष में होती  ,इसका वर्णन कौन करेगा ?

महीन बुद्धि से अनुभव करने का प्रयास अवश्य करें तो आप को अनुभव में आयेगा।

   हां भले कोई साधक कोई अनुभव नहीं करना चाहें तो कोई बात नहीं, उसके रामनामाकंन का प्रभाव अतंर जगत सहित ब्रह्माण्ड और पिण्ड पर होता हैं वो तो होकर ही रहेगा।

एक बार रामनामाकंन होते ही ब्रह्माण्ड में जो हलचल होती हैं उसको कौन कौन अनुभव करेगा?

रामजी ने जब धनुष भंग किया‌ था, तब ब्रह्माण्ड में जो हलचल हुई उसको किसने किसने‌अनुभव किया, मात्र और मात्र देवगणों को अनुभव हुआ, और जनक की सभा में जो उचस्तरिय अवस्था को उपलब्ध थे उन सज्जनों को ,बस ।

    रामजी ने लक्ष्मणजी को कहा कि,प्रथ्वी को थामे रखना जब धनुष टूटे,क्योकि यह शिव धनुष हैं और टूटते ही सारा ब्रह्माण्ड ही डगमगा जायेगा।

ऎसे ही राम नाम का अंकन होता हैं तब वैसी ही हलचल सम्पुर्ण ब्रह्माण्ड में होती हैं।
और यह जो बार बार तारों का टूटना, उल्कापिण्ड का गिरना, गेलेक्सियों के अथवा आकाश गंगा में सतत प्रलय सा उठना, साधक इसके बारे में कभी ध्यान करें।
इनके पिछे साधकों का रामनामाकंन ही हैं।

साधक के पुर्वज जो कोई तारों के रूपमें कोई अन्य किसी लोक में भ्रमण कर रहे हैं,उनको गति प्रदान करने के लिए किया‌गया रामनामाकंन उसका प्रधान कारण हैं।

बी के पुरोहित
वास्ते श्री राम नाम धन संग्रह बैंक पुष्कर राज

रामनामाकंन साधना 24

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रामनामाकंन साधना 24

एक साधक ने कल फोन पर पुछा कि क्या रामनामाकंन साधना करने से कुण्डलिनी जाग्रत हो सकती हैं क्या?

तो उत्तर तो था कि, हां बिलकुल सहज संभव हैं।
अगर साधक का लक्ष्यकुण्डलिनी जागरण की ही हैं तो ?

तो पहले तो मैने उनको एक सत्य घटना सुनाई जो कि अपने
रामनामधनसंग्रह बैंक*

से ही संबधित थी।

बात १९८८ की थी,एक सदस्य थे श्रीमान आर एन बैनर्जी, जो कि सीताराम पूरी अजमेर में रहते थे!

एक दिन उन्होने बडे आग्रह करते हुए मुझे घर आने का आदेश किया,और जब मैं गया तो उन्होने एक बात मजझसे पुछी,कि बालकृष्ष एक बात बताओ,क्योंकि मुझे कोई भी कुछ भी कहदें पर मुझे उनकी बात पर विस्वास नहीं,बस तुम बताओ कि क्या सत्य हैं?
मैने कहा प्रभु सत्य तो मेरी नज़र केवल राम नाम ही हैं,जिसको आदि अनादि से लोग गाते आरहे हैं,बल्कि अंत समय में भी यही उच्चारित करते हुए जाते हैं कि राम नाम सत्य हैं

पर मैने पुछा कि, प्रभु आपने सवा करोड रामनाम लिखित जप कर लिये हैं, और अब आप यह प्रश्न पुछ रहे हैं, तो आपको अब क्या शंका होगयी हैं,जो आज यह पुछ रहे हैं?

वो भी इस उम्र में आकर?

उन्होने कहा‌कि, यहां श्रीरामधर्म शाला में एक संत आये हुए थे,चितीजागरण वाले ।

,मेरे सामने रहने वाला श्रीकिशनबंसल मुझे वहां लेकर गया था, कि,चलो बहुत दिन होगये आपको रामराम लिखते हुए ,और आज तक आपकी कुण्डली जाग्रत हुई नहीं, आपको संत के पास ले चलता हूं,आपकी कुण्डली जाग्रत कर देगें।
तो मुझे भी लगा कि, सारी जिंदगीं होग ई राम राम अंकित करते हुए,अभी तक तो कुण्डली जाग्रत हुई नहीं, चलो भाई चलेगें,कल जब तुम जाओ तो मुझे भी लेकर चलना!

क्योंकि वो बहुत बुजुर्ग थे, और अकेले जाना आना शारिरीक दृष्टि से समनभव नहीं था।

      दुसरे दिन जब हम गये,तो वहां पर पन्द्रह बीस साधक उनके सानिध्य में बैठे थे। 

और जैसे ही हम वहां गये,तो उनके साथी श्रीकिशनजी ने कहा महाराज मैं एक साधक को लेकर आया हूं,इनकी भी कुण्डली जाग्रत करनी हैं !

महाराज ने जैसे ही बैनर्जी को देखा और अपने आसन से उठ कर नीचे आगये और आकर बैनर्जी के पैर छुए,और बोले कि,भैया तुम इनको यहां क्यों लेकर आगये?
इनके तो सारे चक्र पहले से ही जाग्रत हैं।
षटचक्रों को जाग्रत कर अब यह सातवें सहस्त्रसार में ही अवस्तिथ रहते हैं जो भी इनको लेकर आया हैं वो लेकर जाएं और इनको घर छोड आएं, इनको अब और‌ किसभी साधना की आवश्यकता नहीं हैं बस अब तो यह आशिर्वाद प्रदाता हैं,और उन्होने यह कह कर बैनर्जी के पैर छुए और कष्ट के लिए क्षमायाचना करने‌ लगे ।
अब बैनर्जी ने मुझसे पुछा कि,तू बता बालकृष्ण कि क्या मेरे सारे चक्र जाग्रत हैं क्या ?

मैने कहा,प्रभु यह सब बातें तो ठीक हैं,पर अब दो बात की परेशानी आयेगी !

एक तो लोग बाग जो जान गये वो रोज आपको परेशान करेगें कि,मॆरा कोर्ट में केस हैं आज तारिख हैं आप आशिर्वाद दें,कि मैं जीत जाऊं।
दुसरा आपको जिस अवस्था का बिलकुल ध्यान नहीं था कि,मैरे षटचक्रों का भेदन हो रखा हैं, तो कहीं आपका रामनामाकंन अब प्रभावित नहीं हो जाये ?
वे बोले कि अब तो ये लोग रोज सुबह आने लगे हैं कि,आशीष दे दीजिये।
मैरा निवेदन था कि,आप से जो कुछ साधना आपने की हैं उसका सीधा फल हर कोई चाहेगा।

अतः मैरा निवेदन तो यही हैं कि,आप रामनामाकंन करते रहिए और इन सब चक्रों वक्रों के चक्कर में मत पडिये। , 

जब जीवन भर रामनामाकंन के अतिरिक्त किसी को महत्व दिया नहीं तो अब आप…?

तो यह घटना मेरे स्वयं के साथ हुई मेनें स्वयं देखा जाना माना ,और एक दिन वो ही संत जिनके पास किशनजीबंसल लेकर गये थे वो स्वयं चल के उनसे आशीषें लेने उनके घर आये थे!

तो अब आप स्वयं देखिये सोचिये कि,षटचक्रों के भेदन को लेकर कितने तप कराए जा रहे हैं।

कुण्डली जाग्रत कराने के लिए कितने कितने रुपये खर्च करके आयोजन कराए जा रहे हैं।

सहज रूपसे रामनामाकंन करने में क्या‌ समस्या हैं ?

अच्छा जिनके सारे चक्र खुल गये उनके लिए अब क्या आध्यात्मिक जगत में लाभ हो रहा हैं?

जो रामनामाकंन से नही मिल रहा हैं?

उनसे जगत को भी क्या लाभ हो रहा हैं।

क्षमा करियेगा कि, जो काम बिना अहं के रामनामाकंन से हो रहा हैं वो तो अतुलनीय हैं

इसमें अहं जाग्रत होने के स्थान पर साधक अहं रहित‌ होता हैं।

इसमें पर‌दोष देखने का भाव स्वतः समाप्त होता हैं।

इसमें साधक को इतनी शांति का अनुभव होता हैं कि, चित्त की समस्त वृतियां पुर्ण शांत होकर अपने आप में स्थित हो जाती हैं और साधक ब्रह्माण्ड में निश्चिन्त होकर विचरण करता हैं।

ऎसे साधक वायु मार्ग से भी गमन करने में भी सहज होते हैं और जहां चाहें वहां जा सकते हैं,जो चाहे पा सकते हैं, परंतु बात यह होती हैं इस अवस्था को उपलब्ध साधक में किसी भी प्रकार की उसको कोई चाह है ही नहीं हैं।

अतः रामनामाकंन‌कर्ता साधकों से निवेदन हैं कि, बस सहज भाव से मात्र रामनामाकंन किजीये!
इस जगत में रामनामानुराग से अधिक प्राप्त करने की कोई भी सामग्री है ही नहीं जो रामनामाकंन करने वाले को प्राप्त करने की आवश्यकता हों ?

जगत से प्राप्त प्रत्येक वस्तु जगत को ही लोटानी होगी,न वो हमारी थी न हमारी हैं,न हमारी हो सकती हैं, अतः यहां‌ कुछ भी पाने जैसा हैं ही नहीं। और कुछ भी हैं तो वह हैं एक मात्र राम का नाम, बस रामनामानुराग को उपलब्ध हो जाएं,बस यही भाव यही प्रार्थना,रहती हैं, और साधकों की भी यही प्रार्थना रहनी चाहिये।
जय जय‌जय रामनामाकंनम्

प्रस्तुत

वास्ते श्रीरामनामधनसंग्रह बैंक पुष्कर राज
बालकृष्णपुरोहित 9414002930-8619299909

जिसको भी समझ बैठ जाएं,वो अपने से जुडे रामनामाकंन को संकल्पित सदस्य के पास भेज दें,। रामनामाकंन को जो संकल्पित नहीं उनको‌ यह लेख भेजने के लिए महर्षिजी ने मना किया हैं।  धन्यवाद जी।

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