रामनामाकंन साधना 39

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रामनामाकंन साधना 39

आप हम सब रामनामाकंन कर रहे हैं,जो कि सतत हमारे' मनस्त्त्व'  को वर्तमान स्थिति से उस परमतत्त्व . की उच्चावस्था में स्थित करने का कार्य अति सहजरूप से कर रहा हैं ।

पर हमारी सुक्ष्मातिसुक्ष्म ज्ञान प्रवृति को जब तक हमारी बुद्धि पकड नहीं पाती तब तक हमारी अनुभूति में वह अवस्था गुजरती नहीं हैं,और हम उन लोगों को जवाब नहीं दे पाते जो कि कह देते हैं कि, रामनामाकंन से क्या होता हैं,अथवा आपको क्या अनुभव में आया हैं ?

आइये हम रामनामाकंन की प्रक्रिया और उसकी अति सुक्ष्म कार्य शैली को समझने का प्रयास करें।

हमारे ‘मनस्तत्त्व’ तथा ‘इन्द्रियतत्त्व’ को अथवा ‘प्राणतत्त्व’ को प्रथम स्थान देते हुए हमारा मानवीयमन ‘वाक् तत्त्व ‘ को उनके अधीन प्रक्रिया होने के नाते अन्तिम स्थान देता हैं‌।

  • वाक् का वाक्*

मंत्रशक्ति में हमारी वाकशक्ति की ही प्रधानता रहती हैं।
पर जब हमारे ह्रदय से उद्गम हुए वाक को हम मन बुद्धि चित अहं के आकाश पर अंकित कर लेते हैं तो वही वाक् सत्ता सोगुणित प्रभावात्मकता प्रदान करने लगती हैं,अतः हम हमारी मंत्रशक्ति को सदा अंकित करते हुए जाप करते हैं। जिसे हम रामनामाकंन कहते हैं।
रामनामाकंन के नाम से जानते हैं।
अर्थात अपने हाथ से राम नाम का अंकन करते हुए उस परम को अनुभूत करने की प्रक्रिया को ही हम रामनामाकंन कहते हैं।

यह प्रक्रिया वैदिक तो है ही, इसके साथ ही इसको प्रसारित करने के लिए, श्रीगणेश एवं श्रीहनुमानजी व भक्त प्रह्लाद द्वारा प्रयोग कर हमें दिखाया गया,जिससे कि भावी भक्तगणों को इस कलिकाल में इस अति सहज पद्धति पर विश्वास हो सके।

  महर्षि बालेन्द्र ने एवं पुज्य गुरुदेव ने मुझे समझाया कि, वैदिक सिद्धान्त में 'शब्द शक्ति'  ही सृष्टि- कर्त्री हैं। 

‘राम’ ‘शब्द’ से ही विश्व के रूपों की सृष्टि करता‌ हैं।
हमारी अन्य भाषाएं अपनी उच्चतम दशा में अन्तः स्फुरणा तथा रहस्यप्रकाशन द्वारा ‘परम सत्य’ की उस निरपेक्ष अभिव्यंजना की उपलब्धि का प्रयास मात्र करती हैं,जो कि हमारे मनोगत प्रमाणादि से ऊपर अनन्ततत्त्व में पहले से ही विद्यमान हैं।

   अतः यह सुस्पस्ट हो जाता है कि, "राम" शब्द हमारी मनोमयी रचनाओं से स्वतः ही परमोच्त्तर हैं।

हमारी यह समस्त सृष्टि शब्द तत्त्व अर्थात परम उच्चतर शब्द “राम” की ही अभिव्यक्ति हैं।

जो भी रूप अभिव्यक्त होता है या हो रहा हैं, वह वस्तु का प्रतीक अथवा प्रतिचित्रण मात्र होता है जो कि, तत्त्वतः हैं।
जो तत्त्वतः है वही शब्द सतत्त्व “राम” है,ब्रह्म हैं।

     वैदिक भाषा में 'राम' को ही" ब्रह्म " कह कर उच्चारित किया गया हैं।

वैद कहता है कि,
‘राम’ इस परम शब्द के द्वारा उन एन्द्रिक तथा चेतनागत विषयों में जिनसे विश्व की रचना हुई है, अपने ही किसी रूप अथवा व्यजंना को अभिव्यक्त करता है, ठीक जिस प्रकार मानव शब्द उन्ही विषयों की मानसिक प्रतिमा को व्यक्त करता हैं।
वह परम शब्द मानवीय वाणी से अधिक गहन और मौलिक अर्थ में सर्जनात्मक हैं,और उसमें जो सामर्थ्य हैं,मानव वाणी को अत्यधिक सर्जनात्मकता भी उसकी केवल सुदूर तथा क्षीण उपमा मात्र हैं।
अर्थात. ‘राम’ वह हैं जिसका इस प्रकार वाणी के द्वारा मन के सम्मुख अभ्युदय नहीं किया जा सकता हैं, अतः “राम” शब्द का बारं बार अंकन किया जाये,जिससे वह मन के सम्मुख आ सके।
अतः हम रामनामाकंन कर रहे हैं, और पुनः उस अंकित रामनाम को संग्रहित करते हुए उसकी प्रदक्षिणा करते हुए अपने ही अंतरजगत को उस परम उच्चाचस्था तक पहुचाने को प्रयासरत हैं।

आगे कल
प्रस्तुत कर्ता
बी के पुरोहित. माध्यम मात्र हैं।
(स्फुरणा प्रदाता रामनामाकंन के आदि प्रवर्तक महर्षि बालेन्द्र)
वास्ते श्री राम नाम धन संग्रह बैंक ।

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