रामनामाकंन साधना 42

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रामनामाकंन साधना 42
राम यह शब्द मात्र शब्द नहीं हैं बल्कि “ब्रह्म-शब्द” हैं।
हम इसको “शब्द-ब्रह्म” ही मानते हैं।

भले ही एक पक्ष में इसको उपाधि मात्र कह कर व्यक्त किया गया हैं,पर बह भी उसका एक मात्र लौकिक पक्ष ही कहा जायेगा।

नाम रूप दुई ईस उपाधि

कारण कि, इस शब्द-ब्रह्म की अपनी बीज ध्वनियां हैं,जो कि ॐ में भी समाहित हैं।
ॐ. हों या राम ,एक ही ध्वनि को उत्पन्न करते हैं, ॐ अ उ म. ऎसे ही राम. र आ म , दोनो शब्द ब्रह्म शब्द हैं, अथवा शब्द ब्रह्म हैं।

     इनका एक पक्ष स्थुल जगत में पुर्ण प्रभाव व्यक्त करते हैं, यह तांत्रिकों के बीजाक्षर की और भी स्पष्ट संकेत करते हैं। 

  मूल में इन का‌आविर्भाव मनुष्य की सर्वोच्च क्षमता के प्रति होता हैं, और इन्ही रूपों से विश्व  के रूप निर्धारित होते हैं।

इसके अपने छन्द हैं।
कारण कि, राम शब्द का जो स्पन्दन हैं वो अव्यवस्थित नहीं होता हैं,बल्कि ब्रह्माण्ड के महामहिम निर्माण में व्यवस्था,सामजस्य तथा प्रक्रियाएँ होती हैं,जिसका वह निर्माण करता हैं।
हमारा जीवन स्वयं राम का ही एक छन्द हैं।

*अब प्रश्न उठता हैं कि, तब वह क्या हैं,जिसका अभ्युदय ,जिसकी अभिव्यक्ति इस शब्द-ब्रह्म अर्थात ‘राम’ के द्वारा इस प्रपञ्चात्मक दृश्यजगत् में मानसिक चेतना के प्रति की जाती हैं।
यह भी एक अलग ही पहलु हैं, ।
तब वह ब्रह्म नहीं बल्कि ‘ब्रह्म’ के सत्य,उसके रूप,उसकी प्रत्यक्ष घटनाएँ हैं।

  तब इस अवस्था में उच्चारित होने वाले नाॅद को ही संकेत करते हुए गोस्वामजी लिखते है कि,

नाम रूप दुई ईस उपाधि

कारण कि,उस अवस्थाधारी अथवा उस धरातल पर खडे़ व्यक्ति की शक्ति में उस उच्चारित ब्रह्म-शब्द अर्थात राम राम का भी प्रभाव वो मात्र अपनी मानसिक चेतना अनुसार ही अनुभूत करते हुए व्यक्त करता हैं,और कहता हैं कि,
नाम रूप दुई ईस उपाधि
वह ब्रह्म नहीं बल्कि ब्रह्म के सत्य,उसके रूप, उसकी प्रत्यक्ष घटनाएँ हैं,और वह उसी धरातल तक देख पाता हैं।
उसको इस महाशब्द से ब्रह्म राम की अभिव्यक्ति नहीं होती, और ना हीं हो सकती हैं।

कारण स्पष्ट है कि, अभी ऎसे लोगों कि आतंरिक शब्दयात्रा यहां तक ही हो पाती हैं, क्योकिं वह यहां इस ब्रह्मशब्द का‌ प्रयोग अपने निजी आत्मतत्त्व की अभिव्यक्ति के लिए नहीं करते, अतः वो केवल अपने आत्म चैतन्य के प्रति ही ज्ञेय हैं।

साधकों (रामनामाकंन कर्ता)को यह समझ लेना आवश्यक हैं।

वैश्व वस्तुओं के रूपों के पिछे उसके अपने सत्य भी अपनी सच्ची वास्विकता में मन से उच्चतर एक स्पन्दन में उसकी शाश्वत दृष्टि के प्रति स्वयं ही अभिव्यक्त रहते हैं,वह उनका ही एक छन्द और उनकी ही एक वाणी ,जो उनकी ही गति का निजी सारतत्त्व हैं।
वाक् जो कि एक अपर वस्तु है,सर्जन करती है,अभिव्यक्त करती है,किन्तु वह स्वयं एक सृष्ट वस्तु है,एक अभिव्यक्ति हैं।
इसका एक कारण समझ आना चाहिये कि,
राम” वाणी द्वारा अभिव्यक्त (प्रकाशित)नही होता हैं किंतु वाणी स्वयं ‘राम’ द्वारा अभिव्यक्त अर्थात प्रकाशित होती हैं।
जो हमारे भीतर वाणी को प्रकट करता है,हमारी चेतना में से उसका प्रादुर्भाव करता हैं,जो अपने प्रयासों द्वारा हमारे मन के प्रति वस्तुओं के सत्य को उद्भासित करता है, वह स्वयं शब्द रूप ब्रह्म हैं,राम हैं।

  वह सर्वोपरि परचैतन्य में एक 'वस्तुतत्त्व'हैं ।

वह शब्दब्रह्म हमारे वाक् का महावाक ' , अपने शक्तित्व में स्वयं नित्य तत्त्व हैं और अपनी सर्वोपरि गति में अपने ही स्वरूप का शाश्वत आधात्मिक विग्रह का एक अंश हैं। 

जब हम अपनी पुस्तिका में इस राम नाम विग्रह को उत्किरण करते हैं,तब उस ब्रह्मराम को ही प्रकट करते हैं। 

हमारा एक एक अंकित किया गया ,उत्किरण किया गया रामशब्द अपना ही आध्यात्मिक विग्रह हैं, उसका प्रकटीकरण हैं।
आत्मतत्त्व ,को इंगीत करता हुआ हमाराअपना स्वस्वरूप।
उपनिषद कहता है ,ब्रह्मणो रूपम।

   बी के पुरोहित

संस्थापक एवं व्यवस्थापक न्यासी
श्री राम नाम धन संग्रह बैंक पुष्कर अजमेर

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